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Showing posts from 2008

तस्वीरें जो बहुत कुछ बोलती हैं...

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धूप भी वही है , परछाइयां भी वही हैं - फिर वो लातिन अमेरिका हो या हिंदोस्तान। फ़र्क सिर्फ़ उस नज़र का है जो इसे देखती है और धूप - छांह के बीच बुने रंगों की एक तस्वीर के रूप में रचना कर डालती है। चंडीगढ़ में कोई विरला ही होगा जो ब्राज़ील की राजधानी की ख़ूबसूरती से रू - ब - रू हुआ होगा , लेकिन सवाल यह है कि अपने ही शहर को भी क्या यहां के बाशिंदों ने उस नज़र से कभी देखा होगा जिस नज़र से स्टीफन हरबर्ट देख आए हैं ?   फ्रांस के इस छायाकार की खींची तस्वीरों में चडीगढ़ का अलग ही चेहरा उभर आता है। वही सुखना झील , रॉक गार्डन का वही पुल जहां से आप फेज़ -1 से फेज़ -2 में जाते वक़्त दसों बार गुज़रे होंगे , वही ओपन हैंड , थोड़ी ही दूर पानी में हिलती - डुलती हाईकोर्ट की मटमैली इमारत , सेक्टर -22 का वही पार्क , और वही गांधी भवन जिस पर डाक टिकट तक छप चुका है ! ... लेकिन यहां कुछ तो अलहदा है , यकीनन कुछ जुदा - जुदा सा है। यही बात ब्राज़ीलिया क

वो ख़ुशकिस्मत था कि लौट आया. या बदकिस्मत?

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इस फिल्म में ऑस्कर शिंडलर जैसी कोई शख़्सियत नहीं थी जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी में मौजूद शिविरों में नाज़ी सेना के हाथों अत्याचारों का शिकार हो रहे पोलिश यहूदियों को बचाकर अपने कारखानों में नौकरी दे देती। अगर कुछ सामने थी तो वो थी इन्सान के हाथों इन्सानियत का गला घोंटे जाने की दास्तां - एक ऐसी दास्तां जिसे देखकर आंखें गीली होने लगें और हमें इन्सान के रूप में अपने वजूद पर शर्म आने लगे। हंगरी की यह फिल्म ` फेटलेस ´ आपको उस दौर में ले जाती है जब नाज़ी शिविरों में हैवानियत का खेल खेला जा रहा था। फिल्म देखते वक़्त यूं लगा कि सबकुछ सामने घटित हो रहा है और इधर मेरे भीतर कुछ छिलता जा रहा है। कहानी बुडापेस्ट में रहने वाले 14 साल के यहूदी लड़के जॉर्ज कोवेश की है। या यूं कहें कि उस दौर के उन यहूदियों की जिन्हें यूरोप के अलग - अलग देशों से इकट्ठा करके जानवरों की तरह लादकर नाज़ी शिविरों में ले जाया गया ... लेकिन कहानी घूमती इसी लड़के के आसपास है। उस दिन जॉर्ज ने स्कूल से छुट्टी ली थी। उसके पिता को जर्मनी के लेबर कैंप के लिए बुलावा आया था और आखिरी दिन उसे अपने पिता के साथ गु

वो लम्हा आंखों देखा.....

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गुरुवार की शाम को जब मुझे बताया गया कि अगले दिन मोहाली टेस्ट मैच के पहले दिन की ऑफ - बीट कवरेज के लिए मुझे दर्शकों के बीच जाकर बैठना है , तब मुझे इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं था कि आने वाला दिन मुझे उस तारीख़ी लम्हे का गवाह बनने का मौका देगा , जिसे कोई भी शख़्स अपनी निगाहों में क़ैद करना चाहता होगा। जब तक मैं मोहाली स्टेडियम पहुंचा , मैच शुरू हो चुका था। भारतीय टीम पहले बल्लेबाजी के लिए उतरी थी। मैदान पर सलामी जोड़ी खेल रही थी। मैं जहां बैठा था , वहां काफी तादाद में ऑस्ट्रेलिया से आए दर्शक भी थे। यकीनन , वे चाहते थे कि भारतीय विकेट जल्दी - जल्दी गिरें। लेकिन यकीन यह भी मानिए कि हमारे अपने दर्शकों में भी ज़्यादातर ऐसे थे जो कम - से - कम दो विकेट ज़रूर गिरते देखना चाहते थे। बात जितनी अजीब थी , उसके पीछे वजह उतनी ही जानदार। उनके लिए स्कोर बोर्ड पर भारतीय टीम के आगे रनों का अंबार लगा देखने से ज़्यादा अहम था सचिन के 15 रन , ताकि वे ब्रायन लारा के रिकॉर्ड को टूटते और सचिन को दुनिया में सबसे ज़्यादा रन बनाने वाला क्रिकेट खिलाड़ी बनते देख़ सकें। लेकिन इसके लिए सचिन का मैदान पर होना ज़र

क्या होगा अतुल्य भारत का?

मेरा यह आलेख 30 सितंबर को ' दैनिक भास्कर ' के चंडीगढ़ , पंजाब व हरियाणा संस्करणों में प्रथम संपादकीय के रूप में प्रकाशित हुआ है। अतिथि देवो भव की परपंरा की दुहाई देने वाले देश में एक और विदेशी सैलानी से बलात्कार! चंडीगढ़ के एक होटल के बाहर से अगवा की गई जर्मन युवती के साथ हुए इस हादसे से जहां इस सूची में एक और नाम जुड़ गया है , वहीं सरकार में बैठे उन लोगों की पेशानी पर चिंता की लक़ीरें गहरी होना भी लाज़िमी है जो दुनिया की सामने भारत को सुरक्षित एवं बेहतर पर्यटन केंद्र के रूप में पेश करने और एक दशक के भीतर भारत में विदेशी सैलानियों की संख्या पांच गुणा करने की जुगत में हैं। पिछले दिसंबर में पर्यटन मंत्रालय की ओर से जारी एक्शन प्लान में कहा गया था कि भारत आने वाले विदेशी सैलानियों का आंकड़ा वर्ष 2017 के खत्म होते तक 2 करोड़ 50 लाख तक ले जाना है , जो अभी तक 50 लाख पर है। लेकिन साल के शुरू से लेकर अब तक विदेशी महिला पर्यटकों की हत्या , बलात्कार व यौन उत्पीड़न की आधा दर्जन घटनाओं के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली किरकिरी इस मक़सद के रास्ते का कितना बड़ा रोड़ा बनेग

दो नवगीत

ब्लॉग शुरू किया नहीं कि दोस्त लोग इस पर रचनाएं डालने के लिए कहने लगे। डायरी पर पड़ी धूल हटाकर पन्ने पलटे तो कुछ साल पहले लिखे नवगीत सामने आ गए। उनमें से दो नवगीत यहां लिख रहा हूं। दोनों रचनाएं 'भास्कर ' में अलग - अलग वक़्त पर छप चुकी हैं ... क्या करूं मैं बात आज फिर उतरी गगन से पूर्णिमा की रात। कुछ दबी - सी कामनाएं ले रहीं अंगड़ाइयां बज उठी हैं क्लांत मन में सैकड़ों शहनाइयां रही मन की अनकही पर झनझनाया गात। एक पल मैं सोचती हूं दूसरे पल मुस्कराऊं और जो मैं हंस पड़ूं तो देर तक हंसती ही जाऊं कोई न जाने हुआ क्या खा गए सब मात। चांदनी मेरी हंसी का राज़ मुझसे पूछती चुप रहूं तो यह सहेली बेवजह ही रूठती नयन सबकुछ कह चुके अब क्या करूं मैं बात। आज फिर उतरी गगन से पूर्णिमा की रात।। रो दिया है फूल उड़ चला दीवाना भंवरा रो दिया है फूल। सांझ के पहलू में आकर घुल रहा है दिन चल पड़े चरवाहे वापस रेवड़ो

कुछ तो ख़ास है...

बाकी दिनों के मुकाबले आज आंख कुछ देर से खुली है। लेकिन आज मेरा इस्तकबाल कुछ अलग तरह के दिन ने किया है। सूरज बादलों में छिपा है , पर आलम में नई - सी रोशनी नजर आ रही है। पिछली रात से जारी बूंदाबांदी की ठंडक पर वो गरमाहट भारी है जिसे इस वक़्त मैं अपने भीतर महसूस कर रहा हूं। भोपाल में आए आज 11 हफ्ते हो गए। ऐसा पहली बार है कि मैंने गेस्ट हाउस से बाहर कदम नहीं रखा है। बाहर जाने का मन भी नहीं हो रहा। किसी से बात करने का भी नहीं। बस , यूं ही बैठे - बैठे हल्की - सी मुस्कान बार - बार होंठों पे तैरे जा रही है। आज पूरी दुनिया मेरे भीतर आबाद है , तो बाहर जाकर रोशनी तलाशने का भला क्या तुक ? तक़रीबन हफ्ता पहले ही मैंने ब्लॉग बनाया है। किसलिए ? बस यूं ही। शायद इसीलिए इसका नाम बेमक़सद रखा है। एक हफ्ते से इस पर कुछ नहीं लिखा। वक़्त था , लेकिन मन नहीं हुआ। पर आज है , और खूब है। लिखने को ऐसा कुछ ख़ास नहीं , लेकिन अंगुलियां थम नहीं रहीं। इसीलिए मन की बात लिख रहा हूं। या यूं कह लें कि मन खोल कर सामने रख रहा हूं। भोपाल आने के बाद से कुछ भी नहीं लिख पाया था। वैसी कुछ आधी - अधूरी ग़ज़लें भी नहीं जिन्हें