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Showing posts from September, 2013

भागते-भागते दूसरे हाफ़ में हांफ गई ‘जॉन डे’

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ज्ञानी लोग कहते हैं कि जब मौत सिर मंडरा रही हो तब इन्सान को ज़िंदगी के असल मायने समझ आते हैं, कितनी ही चीज़ें उसे बेमानी लगने लगती हैं और जीवन भर किए अपने ग़लत कामों पर उसे पछतावा महसूस होता है। इन्सान भ्रम के कितने भी चश्मे लगाए चलता रहे, मरते वक़्त उसके सामने सारी तस्वीर साफ़ हो जाती है। मौत से पहले के कुछ ऐसे ही पल उसे मुक्ति दिला जाते हैं।       अहिशोर सोलोमन की निर्देशक के रूप में पहली फ़िल्म ‘ जॉन डे ’ का कथानक आम कहानियों जैसा नहीं है कि जिसका कोई तार्किक अंत होता हो। यह फ़िल्म एक स्टोरीलाइन की घटनाओं का चित्रण भर है, लेकिन एक अनकहे सवाल के साथ ज़रूर ख़त्म होती है कि हम जिस सत्य को मरते समय समझकर मुक्ति का अहसास पा जाते हैं (जैसा कि फ़िल्म का एक किरदार ‘ ख़ान साहब ’ कहता भी है), उस मोक्ष की स्थिति को हम जीते-जी महसूस क्यों नहीं कर सकते ? अंतर केवल अपने अदंर के जानवर को ख़त्म करके एक इन्सान होकर सोचने का ही तो है।       फ़िल्म ‘ जॉन डे ’ इसी नाम के एक ऐसे आम इन्सान (नसीरुद्दीन शाह) के बदले की कहानी है जिसे पता चलता है कि उसकी बेटी की मौत हादसा नहीं थी, बल्कि चंद

दोस्तों के साथ ही कर पाएंगे ‘ग्रैंड मस्ती’

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यह फ़िल्म देखने का मन बनाने से पहले कृपया ये तीन चेतावनियां ज़रूर पढ़ लें... यह परिवार के साथ देखे जाने वाली फ़िल्म कतई नहीं है। ऐसा न हो कि आप इस चेतावनी को नज़रअंदाज़ करते हुए परिवार को अपने साथ सिनेमा हॉल में ले जाएं और फिर पहले दो-चार मिनट में ही अपने अगल-बगल बैठे परिजनों से आंख मिलाने तक की हिम्मत न कर पाएं। यह डबल-मीनिंग संवादों, कामुक हाव-भाव और लगभग हर बात में सेक्सुअल अंडरटोन वाली फ़िल्म है। यहां तक कि इसका टाइटल गीत भी सेक्सुअल हिंट से लबरेज़ है। इसे देखते वक़्त बेहद खुले दिमाग़ की ज़रूरत है। उतना ही, जितना आप क़रीबी दोस्तों के साथ नॉन-वेज जोक्स सांझा करते वक़्त खुला रखते हैं। यानी, जो आप अकेले में सोचते हैं या जैसी बातें पक्के यारों के बीच बैठे कर लेते हैं, वह सब परदे पर नज़र आने वाला है। दिमाग़ को घर छोड़कर ही जाना पड़ेगा। वरना, शरीर का 1200 क्यूबिक सेंटीमीटर आकार तथा 1.5 किलो वजन वाला यह सबसे संवेदनशील हिस्सा लगातार 135 मिनट तक तकलीफ़ देता रहेगा।       निर्देशक इंद्र कुमार की यह फ़िल्म उन दर्शकों को ध्यान म

चले आइए मनोंरजन की ‘ज़ंजीर’ से बंधने के लिए

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आप एक अच्छी मनोरंजक फ़िल्म बनाते हैं तो फिर चालीस बरस पुरानी किसी हिट फ़िल्म के नाम का सहारा लेने की ज़रूरत कहां रह जाती है ! क्यों एक फ़िल्मकार चाहता है कि उसकी रचना के हर कोण हर दृश्य को पुरानी फ़िल्म से तुलना करते हुए देखा जाए। ...और वह भी तब, जब उस पुरानी फ़िल्म की कहानी के ज़्यादातर बिंदु तो नई फ़िल्म में लिए गए हों, मगर नाम को सार्थक करता तर्क फ़िल्म में हो ही न। अपूर्व लखिया की ‘ ज़ंजीर ’ एक ऐसी फ़िल्म हैं जिसमें दर्शक को आख़िर तक बांधकर रखने का माद्दा है। इसमें भरपूर मसाला है, एक्शन है, ड्रामा है, अच्छा अभिनय है...और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें रफ़्तार है।        हिंदी सिनेमा के रचनाशील लोगों के बीच एक शब्द चलता है- ‘ वन लाइनर ’ । यानी, फ़िल्म की कहानी का सार। इस मामले में देखें तो अपूर्व की ‘ ज़ंजीर ’ चार दशक पहले आई प्रकाश मेहरा की ‘ ज़ंजीर ’ का रीमेक कही जाएगी। अगर किरदारों के नाम की बात करें, तो भी यह फ़िल्म हमें चालीस साल पीछे ले जाती है। इसमें विजय खन्ना है, शेर ख़ान है, माला है, तेजा है, और साथ ही तेजा की मोना डार्लिंग भी है जिसका नाम इतना वक्त बीतने के बाद भी लोगो