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हमारे दिमाग के पेंच कौन सुलझाएगा?

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अभी कुछ देर पहले दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘ डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी ’ देखकर लौटा हूं और लगातार दिमाग की उलझनें सुलझाने में व्यस्त हूं। ये उलझनें तभी बनना शुरू हो गई थीं जब मैं सिनेमाहॉल में बैठा फिल्म देख रहा था। दिबाकर का ये जासूस किरदार बेशक अपने दिमाग की ग्रे सेल्स का इस्तेमाल करते हुए दो-जमा-दो-चार करके चुटकियों में किसी भी मामले की परतें खोल देता हो, मगर दिबाकर अपनी फिल्म में दिखाना क्या चाह रहे हैं, इस राज की परतें खोलने में तो मेरे दिमाग की चूलें तक हिली जा रही हैं। न भई न, मैं ब्योमकेश बक्शी नहीं हूं। ...और न ही मैं वैसा ब्योमकेश होना ही चाहता हूं जिसे दिबाकर सिनेमा के परदे पर लेकर आए हैं। फिल्म बांग्ला लेखक  शरदेंदु  बनर्जी के लोकप्रिय जासूस पात्र ब्योमकेश बक्शी पर आधारित है। ब्योमकेश को लेकर भारत में फिल्में बनती रही हैं। दिबाकर की फिल्म शरदेंदु बनर्जी की पहली कहानी ‘ सत्यान्वेषी ’ पर आधारित है जिसे उन्होंने साल 1932 में लिखा था। हालांकि, कोलकाता के एक हॉस्टल में घटित होती इस कहानी और इसमें अंजाम दी गई हत्याओं को ‘ डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी ’ में दस साल आगे ले जाते हुए