‘सत्याग्रह’ में सत्य भरपूर मगर आग्रह कम
क्रांति तब होती है जब अति हो जाए ; भीतर उबल रही भावनाएं जनाक्रोश की शक्ल में तब बाहर आती हैं जब कोई एक व्यक्ति पहला कदम बढ़ाए। यह ऐतिहासिक सत्य है कि नेतृत्व के बिना कारवां नहीं बनता...चाहे रास्ता सत्य का ही क्यों न हो, क़दम बढ़ाने वालों का मंज़िल पर अधिकार कितना भी क्यों न हो ! इसी सत्य को प्रकाश झा अपनी नई फ़िल्म ‘ सत्याग्रह ’ के ज़रिये परदे पर लेकर आए हैं। फ़िल्म के मूल में अण्णा हज़ारे का आंदोलन है, यह बात झा ने कभी छुपाकर नहीं रखी। यह ज़रूर है कि कथानक को उन्होंने सिनेमा की ज़रूरतों के हिसाब से बुना है और उसमें जहां-तहां व्यावसायिक मसाले भी डाले हैं। ऐसा नहीं होता तो फ़िल्म अण्णा के आंदोलन का महज चित्रण बनकर रह जाती। हालांकि, इस सबके बीच सच यही है कि अपने नेक इरादे के बावजूद ‘ सत्याग्रह ’ केवल उस सत्य को परदे पर पेश करने का माध्यम मात्र बनकर रह गई है जिससे हम सब पहले से परिचित हैं। मध्य भारत के एक गांव में एक इंजीनियर की मौत की घटना से दिशा पकड़ती इस कहानी अण्णा के आंदोलन पर खत्म होती है। कहानी को असल में अलग-अलग समयकाल की दो घटनाओं को जोड़कर बुना गया है। दर्शक दस