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पीकू पूरे मोशन में

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जाने-माने हॉलीवुड डायरेक्टर अल्फ्रेड हिचकॉक ने एक बेहद पते की बात कही थी। वो ये कि एक कामयाब फिल्म बनाने के लिए केवल तीन चीजों की जरूरत है- स्क्रिप्ट, स्क्रिप्ट, और स्क्रिप्ट। अगर इशारा समझ रहे तो ठीक है... और अगर नहीं तो बताए देता हूं। फिल्म बनाने की कला के नजरिये से देखें तो 'पीकू' एक बेहतरीन फिल्म है, जो देखने वालों को हर हाल में पसंद आनी चाहिए। या कहें कि देखने वाले के दिल में उतर जानी चाहिए। 'पीकू' देखने के दौरान अगर खुद से यह पूछेंगे कि इसमें हीरो कौन है, तो जो पहला नाम ध्यान में आएगा वो इसकी स्क्रिप्ट राइटर जूही चतुर्वेदी का होगा। क्योंकि अगर फिल्म की कहानी देखेंगे तो ये बॉलीवुड के वनलाइनर कॉन्सेप्ट पर खरी उतरती है। वाकई, 'पीकू' की कहानी को एक ही लाइन में समेटा जा सकता है। अगर पारंपरिक नजरिये से देखें तो कहानी कुछ भी नहीं है। जो कुछ है वो इसके लम्हे हैं, जो शुरू से अंत तक आपको जोड़े रखते हैं; जो फिल्म के किरदारों में अापको अपनी ही झलक देखने को मजबूर करते हैं। इतना कि हर लम्हा आपको अपनी जिंदगी से चुराया हुआ लगता है...और इसके लिए आप जूही को मन ही मन द

हमारे दिमाग के पेंच कौन सुलझाएगा?

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अभी कुछ देर पहले दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘ डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी ’ देखकर लौटा हूं और लगातार दिमाग की उलझनें सुलझाने में व्यस्त हूं। ये उलझनें तभी बनना शुरू हो गई थीं जब मैं सिनेमाहॉल में बैठा फिल्म देख रहा था। दिबाकर का ये जासूस किरदार बेशक अपने दिमाग की ग्रे सेल्स का इस्तेमाल करते हुए दो-जमा-दो-चार करके चुटकियों में किसी भी मामले की परतें खोल देता हो, मगर दिबाकर अपनी फिल्म में दिखाना क्या चाह रहे हैं, इस राज की परतें खोलने में तो मेरे दिमाग की चूलें तक हिली जा रही हैं। न भई न, मैं ब्योमकेश बक्शी नहीं हूं। ...और न ही मैं वैसा ब्योमकेश होना ही चाहता हूं जिसे दिबाकर सिनेमा के परदे पर लेकर आए हैं। फिल्म बांग्ला लेखक  शरदेंदु  बनर्जी के लोकप्रिय जासूस पात्र ब्योमकेश बक्शी पर आधारित है। ब्योमकेश को लेकर भारत में फिल्में बनती रही हैं। दिबाकर की फिल्म शरदेंदु बनर्जी की पहली कहानी ‘ सत्यान्वेषी ’ पर आधारित है जिसे उन्होंने साल 1932 में लिखा था। हालांकि, कोलकाता के एक हॉस्टल में घटित होती इस कहानी और इसमें अंजाम दी गई हत्याओं को ‘ डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी ’ में दस साल आगे ले जाते हुए

इस शिकारी के सब तीर निशाने पर

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“ ज़िंदगी में हम कितना भी भटक लें, शारीरिक ज़रूरतें पूरी करने के पीछे कितना भी लगे रहें, लेकिन आख़िरकार हमारे लिए जो सवाल मायने रखेगा, वो यह कि क्या कोई ऐसा इन्सान है हमारी ज़िंदगी में जो हमसे वाकई प्यार करता है... एक ऐसा साथी जिस पर हम इतना भरोसा कर सकें कि हमें कभी झूठ का लबादा ओढ़कर न जीना पड़े ?” इस गंभीर-सी लगने वाली बात को संदेश के तौर पर लेकर चली फ़िल्म ‘ हंटर ’ सेक्स संबंध बनाने को बेसब्र रहने वाले युवा मंदार की ज़िंदगी के जरिये एक चुलबुली पेशकश के तौर पर सामने आती है। इतनी चुलबुली कि ‘ हंटर ’ अपने पूरी अवधि के दौरान हल्के-फुल्के मनोरंजन का अच्छा ज़रिया साबित होती है। इसकी ख़ूबसूरती यह है कि इसका विषय सेक्स पर केंद्रित होने के बावजूद यह सेक्स मसाले से भरपूर फ़िल्म नहीं है, बल्कि सेक्स के आदी हो चुके एक युवा की क़शमक़श को परदे पर लाती है। फ़िल्म का कथानक मंदार (गुलशन देवैया) नामक इंजीनियर के आस-पास घूमता है, जो यौन संबंधों को लेकर अपने आजाद ख़यालात की वजह से दोस्तों के बीच बेहद चर्चित है। फिल्म में बार-बार फ्लैशबैक में जाकर मंदार की ज़िंदगी की परतों में झांका जाता है

पहले ही स्टेशन पर अटकी धीमी लोकल

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वरुण धवन की मुख्य भूमिका वाली नई फिल्म ‘ बदलापुर ’ की टैगलाइन है- ‘ डोन्ट मिस द बिगनिंग ’ । यानी, इसकी शुरुआत देखने से मत चूक जाइएगा। फिल्म देखने के बाद इस टैगलाइन का मकसद शीशे की तरह साफ हो जाता है, क्योंकि शुरुआती दृश्यों के बाद फिल्म में कुछ भी तर्कसंगत नहीं है। फिल्म धीमी है, चलती है चल-चलकर अटकती है और देखने के वाले के जहन में बार-बार खटकती है।  एक बैंक डकैती में पत्नी व बेटे को खोने के बाद राघव ( वरुण धवन ) के किरदार का खाका क्या है, उसकी मानसिकता में क्या बदलाव आया है और वो आखिर चाहता क्या है, यही सोचने-समझने की कोशिश में आपका सारा वक्त निकल जाता है। ...और तिस पर खराब बात यह कि आपकी यह कोशिश सिरे से बेकार चली जाती है। आखिर में आप खुद को यह सांत्वना देते सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं कि फिल्म बेशक बोझिलता से भरपूर निकली, लेकिन लायक की भूमिका में नवाजुद्दीन सिद्दीकी के शानदार अभिनय के अलावा कुमुद मिश्रा को इंस्पेक्टर गोविंद और प्रतिमा काजमी को लायक की अम्मी का किरदार जीते हुए तो कम-से-कम देख पाए। और हां, बीच-बीच में चुटीले संवाद भी थोड़ी राहत दे जाते हैं। फिल्म के मुख्य क

साल का अब तक का बेहतरीन तोहफा

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फिल्मकार आर. बाल्की की जादुई पोटली एक बार फिर खुली है, और इस बार इसमें से पूरी शानो-शौकत तथा ढोल-धमाके के साथ निकली है ‘ शमिताभ ’ । ‘ शमिताभ ’ में डबल डोज़ है ; यह दानिश और अमिताभ का संगम के तौर पर सामने आती है। डबल डोज़, यानी डबल मज़ा। लेकिन यहां मज़ा कई गुणा है। अब आप पूछेंगे कि कैसे ? तो जवाब यह है कि ‘ शमिताभ ’ का हर पहलू जानदार है- इसकी अवधारणा से लेकर कथानक की बुनावट तक, पटकथा से लेकर संवादों तक, अभिनय से लेकर संगीत तक। आप सचेत होकर खामी निकालने बैठेंगे तो एक अच्छी पेशकश का मजा लेने का मौका जाता रहेगा। ...और फिल्म देखने के बाद जब अवचेतन मस्तिष्क को खंगालेंगे तो फिल्म की बहुत-सी खूबसूरत बातों का मिश्रण चेहरे पर मुस्कान तथा मन में संतुष्टि का भाव ला देगा।       ‘ शमिताभ ’ का जब ट्रेलर जारी हुआ था तो इसके धीमी रफ्तार से चलने वाली एक बोझिल-सी फिल्म होने का अक्स जहन में बना था। लेकिन ‘ शमिताभ ’ जब अपने पूरे आकार में सामने आती है तो रूह को खुश करती है। फिल्मी दुनिया में मुकाम बनाने का जुनून पाले एक गूंगे लड़के दानिश की आवाज अमिताभ सिन्हा नामक एक असफल अभिनेता के बनने और फिर उ

एक सुलझा हुआ रहस्य

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आखिर किसने की आयशा महाजन की हत्या ? फिल्म ‘ रहस्य ’ की कहानी इसी सवाल की धुरी पर घूमती है। टीनएजर आयशा के माता-पिता डॉक्टर हैं। शक की पहली सुई पिता की तरफ घूमती है और केस आखिरकार सीबीआई के पास चला जाता है। क्या कहानी कुछ-कुछ नोएडा के सात साल पुराने आरुषि मर्डर केस जैसी लग रही है ? यकीनन !! मोटे तौर पर फिल्म की कथावस्तु उसी मामले पर आधारित है, लेकिन ‘ रहस्य ’ की परतें ठीक आरुषि हत्याकांड जैसी नहीं हैं। फिल्म के लेखक-निर्देशक मनीष गुप्ता ने कल्पनाशीलता के सहारे कहानी को अलग तरह के मोड़ दिए हैं और इस तरह वे एक अच्छी फिल्म बनाने में सफल रहे हैं। ‘ रहस्य ’ की खासियत यह है कि यह आपको शुरू से अंत तक बांधे रखती है और कहीं भी अपनी पकड़ ढीली नहीं पड़ने देती। और जैसा किसी अच्छी मर्डर मिस्ट्री में होना चाहिए कि कातिल का अंत तक पता न चले... तो उस पैमाने पर भी यह फिल्म खरी उतरती है। फिल्म की शुरुआत अपने ही बेडरूम में आयशा महाजन की खून से लथपथ लाश मिलने से होती है। इसके बाद हर नए दृश्य में नए-नए संदेह पैदा करते हुए कहानी आगे ले जाई गई है। इस दौरान मनीष जिस सफाई से महाजन परिवार से जुड़े हर

ऊबाऊज़ादा, पकाऊज़ादा... आधे से ज्यादा इश्कज़ादा

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अगर ‘ हवाईजादा ’ के शुरुआती कुछ पलों में इसके शानदार सेट को देखकर आप मंत्रमुग्ध रह जाते हैं और बड़ी उम्मीदें बांध लेते हैं तो इसे आपकी ही गलती माना जाएगा, क्योंकि कुछ देर बाद आपका ऊब के समंदर में गोते लगाना और बार-बार झुंझलाहट से दो-चार होना तय है। पहले पौने घंटे तक आपको चार गाने सुनने को मिल जाते हैं। ऐसे में यदि खुद से यह सवाल करें कि आप फिल्म क्यों देख रहे हैं, तो यह सवाल कतई बेमानी नहीं होगा।      पहले एक घंटे तक तो इसके नाम पर जाइए ही मत ! 19वीं सदी के अवसान के दौर में आधारित ‘ हवाईजादा ’ में आयुष्मान खुराना जिस अन्वेषक शिवकर तलपड़े का किरदार निभा रहे हैं, वो तब स्थापित होता है जब 157 मिनट की यह फिल्म आधी जा चुकी होती है। उससे पहले शिवकर नालायक किस्म के आशिक के तौर पर ही सामने आता है, जो अक्सर नशे में रहता है। उसका दिल सितारा (पल्लवी शारदा) नामक नर्तकी पर आता है, तो फिर वहीं अटका रह जाता है। पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी होने के बावजूद वह काबिल है, यह आप तब जान पाते हैं जब शास्त्री जी (मिथुन चक्रवर्ती) शिवकर के घर जाकर उसके कमरे में घुसते हैं। इशारा साफ है कि फिल्म की पटकथा में