पहले ही स्टेशन पर अटकी धीमी लोकल

वरुण धवन की मुख्य भूमिका वाली नई फिल्म बदलापुर की टैगलाइन है- डोन्ट मिस द बिगनिंग। यानी, इसकी शुरुआत देखने से मत चूक जाइएगा। फिल्म देखने के बाद इस टैगलाइन का मकसद शीशे की तरह साफ हो जाता है, क्योंकि शुरुआती दृश्यों के बाद फिल्म में कुछ भी तर्कसंगत नहीं है। फिल्म धीमी है, चलती है चल-चलकर अटकती है और देखने के वाले के जहन में बार-बार खटकती है। 
एक बैंक डकैती में पत्नी व बेटे को खोने के बाद राघव (वरुण धवन) के किरदार का खाका क्या है, उसकी मानसिकता में क्या बदलाव आया है और वो आखिर चाहता क्या है, यही सोचने-समझने की कोशिश में आपका सारा वक्त निकल जाता है। ...और तिस पर खराब बात यह कि आपकी यह कोशिश सिरे से बेकार चली जाती है। आखिर में आप खुद को यह सांत्वना देते सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं कि फिल्म बेशक बोझिलता से भरपूर निकली, लेकिन लायक की भूमिका में नवाजुद्दीन सिद्दीकी के शानदार अभिनय के अलावा कुमुद मिश्रा को इंस्पेक्टर गोविंद और प्रतिमा काजमी को लायक की अम्मी का किरदार जीते हुए तो कम-से-कम देख पाए। और हां, बीच-बीच में चुटीले संवाद भी थोड़ी राहत दे जाते हैं।
फिल्म के मुख्य किरदार के चरित्र चित्रण में सतहीपन इस कदर है कि लगता है या तो फिल्म को बहुत तेजी में बनाया गया है या फिर इसे लिखने बैठे लोगों की सोच गहरी नहीं थी। जरा इन उदाहरणों पर गौर करें। राघव बैंक डैकती की घटना के जिम्मेदार लायक के रिहा होने तक और उसकी पत्नी पर गोली लायक ने चलाई थी या कि उसके पार्टनर हरमन (विनय पाठक) ने, यह पुख्ता तौर पर जानने के लिए 20 बरस इंतजार करने को तैयार है, मगर बिना तह तक पहुंचे आनन-फानन में हरमन और उसकी पत्नी कोको (राधिका आप्टे) की बेरहमी से हत्या करने से खुद को रोक नहीं पाता। फिर जब उसे लायक खुद बताता है कि असली कातिल वो है, तो उसे राघव जाने देता है। अजीब बात है
दूसरे, हरमन के साथ-साथ वह कोको को भी मार देता है, जबकि कोको तो एक रात पहले तक पति की असलियत भी नहीं जानती थी। अगर कोको की जान लेनी ही थी तो क्या थोड़ा-बहुत तर्कसंगत यह नहीं होता कि वो हरमन को जिंदा छोड़ देता, यह सोचकर कि जो पीड़ा उसने झेली है वैसी पीड़ा उसके परिजनों का हत्यारा भी झेले। उसकी पत्नी के साथ हमबिस्तर होने का स्वांग रचकर भी तो वह उसे पीड़ा ही पहुंचा रहा है, वरना वो स्वांग रचने की जरूरत ही क्या थी। खैर, कोको को मारने के पीछे राघव के पास जो भी वजह रही हो, लेकिन क्या उसी वजह के चलते उसे लायक की मां की हत्या भी नहीं कर देनी चाहिए थी?
बदलापुर बेहद धीमी गति से चलती है। दृश्य लंबे हैं और बहुत जगह बेवजह खींचे गए हैं। धीमी गति की मुंबई लोकल की तरह फिल्म जगह-जगह रुकती है, पर अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचती। फिल्म अपने अंत में अगर यह संदेश (अगर कोई संदेश देने का फिल्मकार का मकसद था, तो) देती दिखती है कि बदले की भावना को पालते-पोसते रहने का कोई औचित्य नहीं है, तो भी फिल्म का जो ताना-बाना है वो अपने पूरे सफर केदौरान मकसद तक पहुंचता नहीं दिखता है। 
बदलापुर एक अधपकी फिल्म के तौर पर सामने आती है, मगर इसका संगीत कुछ हद तक प्रशंसा के लायक जरूर है। हालांकि, गीत जी करदा... का अति-प्रयोग खटकता है। अपनों को खोकर बिखर चुके एक इन्सान के तौर पर वरुण की लुक तो असरदार है, लेकिन अपनी अदाकारी एवं संवाद अदायगी से वो उस इन्सान को परदे पर पेश नहीं कर सके हैं। उनकी आवाज मर्म के स्पर्श को तरसती रही है और जज्बात उनके चेहरे पर आने से इनकार करते रहे हैं। दिव्या दत्ता, अश्विनी कलसेकर तथा मुरली शर्मा जैसे मंझे कलाकारों के लिए करने को ज्यादा कुछ नहीं था, वहीं हुमा कुरैशी तथा यामी गौतम निराश करती हैं। राधिका आप्टे काफी हद तक किरदार में हैं, पर यह समझ से परे है कि एक नहीं-के-बराबर भूमिका के लिए उन्होंने परदे पर कपड़े त्यागने के लिए हां क्या सोचकर कर दी।

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