ख़ामोशी के शब्द


























होंठ लरजते रहे
तरसते रहे
ज़रा-सी बात को
शब्दों की शक्ल देने के लिए
खिड़की तक आकर जैसे
रुक जाए कोई बादल
 

आंखों से होती रहीं
लफ्ज़ों की बारिशें
भिगोती रहीं
तुम्हारे मन की ज़मीन
मेरे मन की ज़मीन
तुम भी तृप्त
मैं भी तृप्त
समेटकर अपने भीतर
जज़्बातों के दरिया को

वो जो नहीं जानते
ख़ामोशी की ज़बान
देखते रहे वो बस होंठों का लरजना 

Comments

जब सब तृप्त तो बस...
सुंदर एहसासों में लिपटे अल्फाज़
Pradeep Bhatt said…
Sir,Khamosh rahkar ankhon se hi bayan kar sakta hun kyunki shabd nahin hain mere paas..
Ajay K. Garg said…
@दीपिका और प्रदीप....शुक्रिया आपका
@प्रतिभा, वैसे 'सब तृप्त' की स्थिति विरले ही आती है..
मुबारक ......
ये ख़ामोशी की जुबां....))
हम तो बस होंठों का लरजना ही देखते रहे ....:))
vidya said…
बहुत बहुत सुन्दर...
लाजवाब भावनाये..नाज़ुक सी अभिव्यक्ति..
सस्नेह..
S.N SHUKLA said…
सुन्दर सृजन , सुन्दर भावाभिव्यक्ति.
please visit my blog too.
मैं यूँ ही फ़रियाद करती रही
हर राहे उन्हें याद करती रहीं
यकीन था नहीं गिरने देंगे मुझे
उनकी ख़ामोशी पे ऐतबार करती रही ||
pad kr aisa laga jaise aapne meri hi mann ki baat kah di ho....

kafi sundar shabd sanyojan...
Ajay K. Garg said…
@हरकीरत जी, शुक्ल जी, अंजू जी, विद्या जी और आशा जी... ऱचना पसंद करने के लिए आपका धन्यवाद!!! बहुत बार ख़ामोशी से बेहतर कोई संवाद नहीं होता...
@ अंजू जी, बहुत उम्दा लिखा...
बहुत सार्थक नाजुक अभिव्यक्ति भावपूर्ण सुंदर रचना,बेहतरीन पोस्ट....
new post...वाह रे मंहगाई...
पता है गुरु व्यक्तिगत प्रेम कविता की बड़ी खामी यह है कि यह बहुत ज्यादा खुला छोड़ देती है। जिसका जैसा दिमाग और मन वह वैसे ही इसे मूर्त रूप दे देता है। यूं भी कविता है ही अमूर्त अभिव्यक्ति। लाउड कविता 70 के दशक में जिस तेजी से उभरी थी, वैसे ही गति को प्राप्त हुई। सुधि आलोचक गहरी दृष्टि डालेंगे, लेकिन एक पाठक के तौर पर मामला जम नहीं रहा। या तो अभी बहुत कुछ कहना है। कहीं फंसे हुए हो, जो प्रेम पूरी तरह कविता में अभिव्यक्त नहीं हुआ, या फिर कुछ छुपाना चाहते हो। सब कुछ सार्वजनिक करने का हौसला, जो दिमाग की नसों में बंधा होता है, वह बाहर नहीं निकल पा रहा है।
इस पोस्ट पर आए कमेंट की वाह-वाह पर मत जाना। ऐसी वाह वाहियां छह रुपये की सिगरेट में भरी पड़ी रहती हैं। लेकिन प्रतिभा जी के कमेंट से हैरान हूं। वे सचमुच गंभीर पाठक हैं, अगर सिर्फ हौसला बढ़ाने के लिए की है, तो लानत अजय भाई आपको लिखने के लिए हौसले की तो कतई जरूरत नहीं है। आपको तो चाहिए निर्मम आलोचना दृष्टि, जो मुक्तिबोध के पास थी, नामवर खो चुके, विश्वनाथ जी अपने में गुम हैं, और मैनेजर पांडे इतिहास में चक्कर काट रहे हैं। बचा बेचारा मैं, तो अखबारी काम कर लूं।

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