संवेदनशीलता से भरपूर है ‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’

किसी फ़िल्म के टाइटल में मर्डर शब्द नज़र आते ही इसे आप केवल इसलिए देखने जाते हैं कि कहानी में सस्पेंस होगा और ढाई घंटे तक परदे पर एक क्राइम थ्रिलर देखने को मिलेगा, तो यकीनन अंकुर अरोड़ा मर्डर केस आपकी फ़िल्म नहीं है। हां, अगर आप संजीदा दर्शक हैं; एक अभिभावक हैं; अपनी संतान को ज़रा-सी चोट लगते ही आपका दिल दहल जाता है; जानते हैं कि क़त्ल की परिभाषा में सिर्फ वो अपराध नहीं आते जिनसे अखबार आए दिन रंगे रहते हैं; और फ़िल्म में हर पल किसी-न-किसी पात्र को अपने भीतर महसूस करके थोड़ा हिल जाना चाहते हैं, तो फिर आप यह फिल्म देखने में देर नहीं करना चाहेंगे।
      किस तरह डॉक्टरों की लापरवाही मामूली-से बीमार बच्चे की जान ले सकती है और कैसे यह लापरवाही एक क़त्ल के बराबर है, यही इस फ़िल्म का कहानी है। ...लेकिन कोई फ़िल्म केवल कहानी नहीं होती। मायने इस बात के रहते हैं कि इसकी बुनावट कैसी है, कथानक में नाटकीयता कितनी है, फ़िल्म की रफ़्तार क्या है और शुरू से अंत तक के सफ़र पर यह किस तरह के मोड़ तय करती है। अगर इन सब पहलुओं को ध्यान में रखकर बात करें तो सुहेल ततारी ने एक बेहतरीन पेशकश दी है। इससे पहले माय वाइफ़्स मर्डरजैसी संवेदनशील फ़िल्म दे चुके ततारी अपनी इस फिल्म में जिस ढंग से जिंदगी के भावनात्मक पहलुओं तथा व्यावसायिक पहलुओं को एक साथ लेकर चले हैं, जिस तरह से क़दम-दर-क़दम पैदा होने वाले विरोधाभासों को उन्होंने परदे पर शिद्दत के साथ उतारा है, वो सब इस फ़िल्म को एक ऊंचे पायदान पर खड़ा कर देता है।
      फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है, पर इसका फ़िल्मीकरण आपको भीतर से पिघलाए बिना नहीं रहता। परदे पर चलते विरोधाभासों के बीच फ़िल्म ख़त्म होते तक दर्शक फ़ैसला कर चुका होता है कि डॉक्टरी पेशे के दौरान होने वाली चूक की वह सजा नहीं होनी चाहिए जो अक्सर तय की जाती है, लेकिन इस पेशे के साथ आने वाले घमंड तथा ग़लती पर परदा डालने के लिए बोले गए झूठ को स्वीकार करने के लिए वह कतई तैयार नहीं है। बिना कोई उपदेशात्मक तरीका अपनाते हुए फ़िल्म एक ऐसा सवाल छोड़ जाती है जो सिनेमाहॉल से बाहर आने के काफी देर बाद तक आपके साथ बना रहता है।
      फ़िल्म की पटकथा बीच में कहीं-कहीं बोझिल होती दिखती है, फिर भी एक लेखक के तौर पर विक्रम भट्ट इस फ़िल्म के जरिये भी सफल रहे हैं। शगुफ़्ता रफ़ीक़ के संवाद सीधे असर करते हैं, केवल उस एक दृश्य को छोड़कर जहां फ़िल्म का केंद्रीय किरदार डॉ. अस्थाना मेडिकल एथिक्स पर लंबे तथा एकतरफा तर्क पेश करता है। कलाकारों में अर्जुन माथुर, विशाखा सिंह, केके मेनन, टिस्का चोपड़ा ने यक़ीनन कमाल का काम किया है। वहीं, फ़िल्म का मद्धम संगीत गुनगुनाने लायक तो नहीं है, मगर ध्यान देकर सुनने लायक ज़रूर हैं। एक भारी फ़िल्म में ये गीत ज़िदगी की सच्चाई से रू-ब-रू कराते नज़र आते हैं।

Comments

Popular posts from this blog

ख़ामोशी के शब्द

धरती पर जन्नत है मालदीव

नई ग़ज़ल