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Showing posts from August, 2008

दो नवगीत

ब्लॉग शुरू किया नहीं कि दोस्त लोग इस पर रचनाएं डालने के लिए कहने लगे। डायरी पर पड़ी धूल हटाकर पन्ने पलटे तो कुछ साल पहले लिखे नवगीत सामने आ गए। उनमें से दो नवगीत यहां लिख रहा हूं। दोनों रचनाएं 'भास्कर ' में अलग - अलग वक़्त पर छप चुकी हैं ... क्या करूं मैं बात आज फिर उतरी गगन से पूर्णिमा की रात। कुछ दबी - सी कामनाएं ले रहीं अंगड़ाइयां बज उठी हैं क्लांत मन में सैकड़ों शहनाइयां रही मन की अनकही पर झनझनाया गात। एक पल मैं सोचती हूं दूसरे पल मुस्कराऊं और जो मैं हंस पड़ूं तो देर तक हंसती ही जाऊं कोई न जाने हुआ क्या खा गए सब मात। चांदनी मेरी हंसी का राज़ मुझसे पूछती चुप रहूं तो यह सहेली बेवजह ही रूठती नयन सबकुछ कह चुके अब क्या करूं मैं बात। आज फिर उतरी गगन से पूर्णिमा की रात।। रो दिया है फूल उड़ चला दीवाना भंवरा रो दिया है फूल। सांझ के पहलू में आकर घुल रहा है दिन चल पड़े चरवाहे वापस रेवड़ो...

कुछ तो ख़ास है...

बाकी दिनों के मुकाबले आज आंख कुछ देर से खुली है। लेकिन आज मेरा इस्तकबाल कुछ अलग तरह के दिन ने किया है। सूरज बादलों में छिपा है , पर आलम में नई - सी रोशनी नजर आ रही है। पिछली रात से जारी बूंदाबांदी की ठंडक पर वो गरमाहट भारी है जिसे इस वक़्त मैं अपने भीतर महसूस कर रहा हूं। भोपाल में आए आज 11 हफ्ते हो गए। ऐसा पहली बार है कि मैंने गेस्ट हाउस से बाहर कदम नहीं रखा है। बाहर जाने का मन भी नहीं हो रहा। किसी से बात करने का भी नहीं। बस , यूं ही बैठे - बैठे हल्की - सी मुस्कान बार - बार होंठों पे तैरे जा रही है। आज पूरी दुनिया मेरे भीतर आबाद है , तो बाहर जाकर रोशनी तलाशने का भला क्या तुक ? तक़रीबन हफ्ता पहले ही मैंने ब्लॉग बनाया है। किसलिए ? बस यूं ही। शायद इसीलिए इसका नाम बेमक़सद रखा है। एक हफ्ते से इस पर कुछ नहीं लिखा। वक़्त था , लेकिन मन नहीं हुआ। पर आज है , और खूब है। लिखने को ऐसा कुछ ख़ास नहीं , लेकिन अंगुलियां थम नहीं रहीं। इसीलिए मन की बात लिख रहा हूं। या यूं कह लें कि मन खोल कर सामने रख रहा हूं। भोपाल आने के बाद से कुछ भी नहीं लिख पाया था। वैसी कुछ आधी - अधूरी ग़ज़लें भी नहीं जिन्हें ...