दो नवगीत
ब्लॉग शुरू किया नहीं कि दोस्त लोग इस पर रचनाएं डालने के लिए कहने लगे। डायरी पर पड़ी धूल हटाकर पन्ने पलटे तो कुछ साल पहले लिखे नवगीत सामने आ गए। उनमें से दो नवगीत यहां लिख रहा हूं। दोनों रचनाएं 'भास्कर ' में अलग - अलग वक़्त पर छप चुकी हैं ... क्या करूं मैं बात आज फिर उतरी गगन से पूर्णिमा की रात। कुछ दबी - सी कामनाएं ले रहीं अंगड़ाइयां बज उठी हैं क्लांत मन में सैकड़ों शहनाइयां रही मन की अनकही पर झनझनाया गात। एक पल मैं सोचती हूं दूसरे पल मुस्कराऊं और जो मैं हंस पड़ूं तो देर तक हंसती ही जाऊं कोई न जाने हुआ क्या खा गए सब मात। चांदनी मेरी हंसी का राज़ मुझसे पूछती चुप रहूं तो यह सहेली बेवजह ही रूठती नयन सबकुछ कह चुके अब क्या करूं मैं बात। आज फिर उतरी गगन से पूर्णिमा की रात।। रो दिया है फूल उड़ चला दीवाना भंवरा रो दिया है फूल। सांझ के पहलू में आकर घुल रहा है दिन चल पड़े चरवाहे वापस रेवड़ो...