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Showing posts from August, 2011

लोकतंत्र

1) रगड़-रगड़ कर चमकाया जा रहा है सड़क को। कल शाम यह भीग गई थी उन लोगों के लहू से जो मूक रहकर कर रहे थे कोशिश अपनी आवाज़ सुनाने की और इसके बदले में जिन्होंने झेली थीं लाठियां। इस सड़क से रोज़ की तरह आज भी गुजरेंगी उन लोगों की गाड़ियां जिन्हें हमने खड़ा किया है अपनी आवाज़ बनाकर जो करते हैं फ़ैसला कि कब आवाज़ उठाना क्रांति माना जाए और मौन रहना अपराध। सड़क की लाली आज अख़बारों ने ले ली है सड़क निष्कलंक चमक रही है उधर , दीवार पर चस्पां एक पोस्टर बोल रहा है- मताधिकार का प्रयोग करके लोकतंत्र को मज़बूत बनाएं। 2) नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं थीं नजरें झुका लीं... तर्कों का जवाब नहीं था कोई चुप्पी ओढ़ ली... आवाज़ उठी तो ख़तरे की आहट सुनाई दी आवाज़ दबा दी...। 3) अत्याचार की कहानी कहती शहर की सड़कें लाल थीं सुबह छपकर जो हाथ में पहुंचा उस अख़बार की ख़बरें लाल थीं हर कोई रो रहा था देश की आंखें लाल थीं अहिंसा का पुजारी तस्वीर बनकर लोकतंत्र के मंदिर में हर दीवार पर टंगा है ...वो केवल तस्वीरों में मुस्कराता है

यूं लगा जन्नत में हैं

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नीलगिरी पर्वतमाला में मौजूद ऊटी को पर्वतों की रानी कहा जाता है। यह छोटा-सा कस्बा अपने में गजब की सुंदरता समेटे हुए है। सैलानियों की लगातार आमद की वजह से भारत के अधिकांश पर्वतीय स्थल जहां गरिमा खोते जा रहे हैं , वहीं इसके उलट ऊटी ने अपने रूप को बखूबी बरकरार रखा है। मुन्नार की मखमली खूबसूरती से तीन दिन तक रू-ब-रू रहने के बाद हमारी टोली ऊटी के लिए रवाना हुई तो एक उदासी-सी मन में थी। एक तो जन्नत जैसे मुन्नार से हम विदा ले रहे थे जहां से वापस आने का दिल किसी ऐसे व्यक्ति का ही कर सकता है जिसकी पांचों इंद्रियां निष्क्रिय हो चुकी हों। दूसरे, मन में यह सवाल बार-बार सिर उठा रहा था कि मुन्नार को देखने के बाद ऊटी कहीं फीका लगा और अगले दो दिन बेकार चले गए , तो ? मुन्नार से कोयम्बटूर और वहां से आगे ऊटी जाने के लिए यूं तो अच्छी सड़क है, पर चूंकि टोली में आठ-दस बच्चे और कुछ महिलाएं भी थीं , तो बेहतर यही था कि सड़क के मुश्किल सफर के बजाय ऊटी तक की दूरी ट्रेन से तय की जाए। इस फैसले की वजह मेट्टूपालयम से ऊटी तक घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर रेंगने वाली टॉय ट्रेन भी थी जो खासकर बच्चों के लिए ए

ज़िंदगी का गीत

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हाथ में झोला टांग ले भइया समय से फ़ुरसत मांग ले भइया चल, दुनिया देखन चलते हैं... अनजाने से रस्ते होंगे लेकिन हाल समझते होंगे तेरी उंगली थाम चलेंगे सुबह, दुपहरी, शाम चलेंगे नए-नए से रंग सफ़र के करके तेरे नाम चलेंगे आँखें थोड़ी चमकीली कर दिल में थोड़ी-सी हिम्मत भर आ जा निकलें उन राहों पर नए तज़ुर्बों वाले जिन पर लाखों रंग खिला करते हैं चल, दुनिया देखन चलते हैं... रंग, नज़ारे, लोग नए-से पुरबा, पानी, भोग नए-से हर सू नई रवायत होगी दोहे कहीं पे आयत होगी दिल की गांठें खुल जाएंगी फिर न कोई शिकायत होगी खुलकर जो परवाज़ भरेगा आँखों का जाला निकलेगा तू धरती का हो जाएगा   अम्बर तुझमें आन मिलेगा देह को अब ज़िंदा करते हैं चल, दुनिया देखन चलते हैं... तेरी दुनिया से भी आगे इक दुनिया है, गर तू जागे बैठे-ठाले बहुत जिया रे अब तो अपना छोड़ ठिया रे पोथी है यह जीवन सारा पन्ने इसके पढ़ ले सारे घर में जो दुबका है डर से वो जीवन जीने को तरसे लेकिन बोझ हटा के सर से बेमक़सद जो निकले घर से ठौर उसे ही सब मिलते हैं

विदेशी सागर तटों को मात देता वर्कला

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केरल के दक्षिणी छोर पर एक छोटा-सा शहर है वर्कला। पहली नजर में यह हल्की-फुल्की रफ्तार से चल रही एक उनींदी-सी जगह लगती है। लेकिन पहाड़ी पर पहुंचकर जैसे ही आप नीचे नजर दौड़ाते हैं तो एक दूसरी ही दुनिया नजर आती है।   केन फॉलेट के उपन्यास ‘ आई ऑफ द नीडल ’ को पढ़े मुझे ज्यादा वक्त नहीं बीता था। यह उपन्यास एक नाजी जासूस की गतिविधियों पर आधारित है जो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन में रहकर जासूसी करता है। इसके कथानक का बड़ा हिस्सा एक चट्टानी द्वीप पर घटता है- समंदर के सीने पर मुस्तैद खड़ी एक चट्टान , जिसकी तलहटी में लहरें ठांठें मार रही हैं। उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में इस नजारे की छवि कहीं गहरे अंकित हो गई। लेकिन मुझे अंदाजा नहीं था कि यह छवि जल्दी ही साकार होने वाली थी। वर्कला... केरल के दक्षिणी छोर पर एक छोटा-सा शहर। पहली नजर में यह हल्की-फुल्की रफ्तार से चल रही एक उनींदी-सी जगह लगेगी। चारों तरफ हरे-भरे पेड़ों से घिरा हुआ शांत रेलवे स्टेशन जहां ज्यादा चहलकदमी नहीं ; स्टेशन के बाहर टैक्सी और ऑटो वालों की भीड़ ; सड़क पर से ही सवारियां लेती बसें ; खाने-पीने की साधारण दुका