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Showing posts from 2011

बादलों के पार, रोमांच का संसार

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मलेशिया जाने का मौका मुझे पहले दो बार मिला था, पर दोनों बार छह-छह घंटे के लिए ही वहां पर रुक पाया था। ऐसे में एक दिन एयर एशिया का नया ऑफर दिखा तो आनन-फानन में टिकट बनवा ली। मुंबई से कुआलालम्पुर आना-जाना आठ हज़ार में ! और मलेशिया प्रवास के दूसरे ही दिन इतनी ख़ूबसूरत जगह पर जाने का मौका मिला कि बाकी यात्रा भी ख़ुशगवार हो गई। मेरा दिल मुझे अपनी पसलियों पर तबला बजाता लग रहा था ; पेट में अजीब-सी ऐंठन महसूस हो रही थी ; होंठ लगातार ऊपरवाले का नाम बुदबुदा रहे थे। बस, पसीना नहीं आया था क्योंकि मौसम ठंडा था, शाम भी हो चली थी, और कुछ देर पहले हुई बूंदाबांदी ने पारा थोड़ा और गिरा दिया था। मुझे खड़ी ऊंचाई से डर लगता है, और उस समय मैं अपने इसी डर से जूझने जा रहा था। मेरे अंदर के हाल-चाल का सीधा प्रसारण शायद मेरे चेहरे पर हो रहा था। मेरी हालत देखकर वहां खड़ी परिचारिका हल्का-सा मुस्कराई और उसने मेरी सेफ्टी बेल्ट को लॉक कर दिया। स्पेस शॉट का रोमांच अविस्मरणीय है। उस वक़्त मैं मलेशिया के गेंटिंग में पहाड़ियों की गोद में बसे रिज़ॉर्ट वर्ल्ड में था और वहां से सबसे रोमांचकारी झूले ‘ स्पे

ज़िंदा कविता की तलाश

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  बहुत दिनों से नहीं पढ़ी   कविता जैसी कोई कविता वो कविता   जिसे पढ़कर लगे   मैं हो आया हूं   उन गली-कूचों में   जहां बसते हैं मिट्टी में सांस फूंकते लोग   जहां आज भी ठंडक देती है हवा   जहां नहीं भूले हैं लोग   मनुष्य होने का मतलब कविता जिसे पढ़ूं तो लगे कि छू आया हूं उन संवेदनाओं को जो अक्सर रह जाती हैं अछूती आडम्बर परोसने की होड़ में जो जुड़ी रहती हैं धरती से और आकाश से करती हैं बात हाथ बढ़ाकर सहारा देते समय नहीं देखतीं जो दिन और रात कविता जो रची न गई हो केवल रचे जाने के लिए जो न तोड़े दम कवि से आलोचक आलोचक से किताब तक के सफर में जो हो शाश्वत इस तरह कि युगों के सीमाएं भी भूल जाएं अपने अर्थ ऐसी कविता जो न हो आत्ममुग्धि के लिए बुना हुआ शब्दजाल उस कविता के शब्द अर्थ गढ़ते हों और उन अर्थों में जीवन के असल रंग झरते हों जिसके शब्द सपनीले न हों बेशक लेकिन सपनों की बात करते हों कविता जो पहुंचे उन तक जिनकी वो बात करती है ताकि लगे उन्हें भी कि उनके दुःख-दर्द का है साझीदार कोई पहुंच रही है उनकी पीड़ा उन तक जो कहते ह

पैसों के पहाड़ पर सिनेमा

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भारतीय फिल्म उद्योग में पैसा अब पानी की तरह बह रहा है। एक फिल्म बनाने में 50 से 100 करोड़ तक खर्च करने में भी निर्माताओं को गुरेज नहीं है। कलाकारों को मुंहमांगे दाम मिल रहे हैं। पैसा लग रहा है तो पैसा आ भी रहा है। टिकटों के दाम बेतहाशा बढ़े हैं और हफ्ते भर में फिल्में पूरी लागत निकाल ले जा रही हैं। बात उन दिनों की है जब एक अभिनेता के रूप में अमिताभ के पांव जम चुके थे और उनका सितारा बुलंदी पर था। वे युवाओं में जुल्मो-सितम से टक्कर लेने का जोश भर देने वाले गुस्सैल युवा नायक थे और एक के बाद एक उनकी फिल्में सिनेमाघर मालिकों को ठीक-ठाक कमाई दे रही थीं। उन दिनों एक खबर चर्चा में थी। खबर में कितना दम था , यह कहना मुश्किल है , लेकिन सुनने वाले के जबड़े लटकाने और आंखें चौड़ी करने के लिए यह काफी थी। खबर यह थी कि अमिताभ ने ‘ काला पत्थर ’ के लिए 27 लाख रुपए लिए थे। यह बात साल 1980 के आस-पास की है। उस वक्त अमिताभ भारतीय फिल्म उद्योग के सबसे महंगे सितारों में से एक थे।  आज की बात करें तो एक फिल्म के लिए किसी अभिनेता को भुगतान का आंकड़ा 27 करोड़ रुपए तक जा पहुंचा है। हैरान म

अब हमारी बात करती हैं फिल्में

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कंटेंट के मामले में भारतीय सिनेमा का एक अलग चेहरा पिछले कुछ समय में हमारे सामने आया है। कथानक ज्यादा सच्चे लगने लगे हैं। कहानी अगर काल्पनिक है तो भी उसके पात्र हमें खुद का प्रतिबिंब लगते हैं। और घटनाएं ऐसी मानो सबकुछ हमारे आस-पास चल रहा है। बहुत बार दोस्तों से गप्पबाजी के दौरान आपके मुंह से निकला होगा- ‘ क्यों फिल्मी डायलॉग मार रहा है , यार। ’ इस तरह टोकने का मतलब यह रहा होगा कि जो बात कही गई है वो कहने भर के लिए है , असल जिंदगी में उसका होना या उस पर खरा उतरना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है। जिस तरह एक फिल्म की कहानी यथार्थ से परे होती है , उसी तरह उसके संवाद भी नाटकीयता से भरे होते हैं। जज्बातों की बात हो तो उनमें अतिरेक , कहानी में संयोगों की बात हो तो उनमें भी अति , दृश्य भी ऐसे कि अतिशयोक्ति अलंकार का सटीक उदाहरण बनाकर पेश किए जा सकें। यानी , परदे पर जो कुछ भी दिखाया जा रहा है , वह असलियत के आसपास भी न फटके। तभी तो आपके टोकने पर अक्सर यही जवाब मिला होगा- ‘ नहीं यार , डायलॉग नहीं मार रहा... कसम से , सच कह रहा हूं। ’     शायद कुछ ज्यादा हो गया , है न ? यहां

लोकतंत्र

1) रगड़-रगड़ कर चमकाया जा रहा है सड़क को। कल शाम यह भीग गई थी उन लोगों के लहू से जो मूक रहकर कर रहे थे कोशिश अपनी आवाज़ सुनाने की और इसके बदले में जिन्होंने झेली थीं लाठियां। इस सड़क से रोज़ की तरह आज भी गुजरेंगी उन लोगों की गाड़ियां जिन्हें हमने खड़ा किया है अपनी आवाज़ बनाकर जो करते हैं फ़ैसला कि कब आवाज़ उठाना क्रांति माना जाए और मौन रहना अपराध। सड़क की लाली आज अख़बारों ने ले ली है सड़क निष्कलंक चमक रही है उधर , दीवार पर चस्पां एक पोस्टर बोल रहा है- मताधिकार का प्रयोग करके लोकतंत्र को मज़बूत बनाएं। 2) नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं थीं नजरें झुका लीं... तर्कों का जवाब नहीं था कोई चुप्पी ओढ़ ली... आवाज़ उठी तो ख़तरे की आहट सुनाई दी आवाज़ दबा दी...। 3) अत्याचार की कहानी कहती शहर की सड़कें लाल थीं सुबह छपकर जो हाथ में पहुंचा उस अख़बार की ख़बरें लाल थीं हर कोई रो रहा था देश की आंखें लाल थीं अहिंसा का पुजारी तस्वीर बनकर लोकतंत्र के मंदिर में हर दीवार पर टंगा है ...वो केवल तस्वीरों में मुस्कराता है