पैसों के पहाड़ पर सिनेमा
भारतीय फिल्म उद्योग में पैसा अब पानी की तरह
बह रहा है। एक फिल्म बनाने में 50 से 100 करोड़ तक खर्च करने में भी निर्माताओं को
गुरेज नहीं है। कलाकारों को मुंहमांगे दाम मिल रहे हैं। पैसा लग रहा है तो पैसा आ
भी रहा है। टिकटों के दाम बेतहाशा बढ़े हैं और हफ्ते भर में फिल्में पूरी लागत
निकाल ले जा रही हैं।
बात उन दिनों की है जब एक अभिनेता के रूप में अमिताभ के पांव जम चुके थे
और उनका सितारा बुलंदी पर था। वे युवाओं में जुल्मो-सितम से टक्कर लेने
का जोश भर देने वाले गुस्सैल युवा नायक थे और एक के बाद एक उनकी फिल्में सिनेमाघर
मालिकों को ठीक-ठाक कमाई दे रही थीं। उन दिनों एक खबर चर्चा में थी। खबर में
कितना दम था,
यह
कहना मुश्किल है,
लेकिन
सुनने वाले के जबड़े लटकाने और आंखें
चौड़ी करने के लिए यह काफी थी। खबर यह थी कि अमिताभ ने ‘काला पत्थर’ के लिए 27 लाख रुपए लिए थे। यह बात
साल
1980 के
आस-पास की है। उस वक्त अमिताभ भारतीय फिल्म उद्योग के सबसे महंगे सितारों
में से एक थे।
आज की बात करें तो एक फिल्म के लिए किसी
अभिनेता को भुगतान का आंकड़ा 27 करोड़ रुपए तक जा पहुंचा है। हैरान मत होइए...यह
खबर सौ फीसदी सच है। फिल्म ‘शिवाजी’ के लिए तमिल सुपरस्टार रजनीकांत ने इतनी ही
रकम ली थी। रजनीकांत अगर भारतीय सिनेमा के इतने महंगे सितारे हो चुके हैं, तो हिंदी फिल्मों के सितारे भी कम नहीं हैं। बताया जाता है कि अक्षय कुमार एक
फिल्म में काम करने के 15 करोड़ रुपए तक मांगते हैं। आमिर खान व शाहरुख खान भी
ज्यादा पीछे नहीं हैं, उन्हें एक फिल्म के लिए 20 करोड़ तक मिलते हैं। इधर, सलमान हैं कि ‘दबंग’ व ‘रेड्डी’ की सफलता के बाद उनका सितारा आसमान पर जा पहुंचा है। पिछले दिनों खबर आई कि
वे उनके दाम 50 करोड़ प्रति फिल्म हो चुके हैं और निर्माता उनका इतना पैसा देने को
तैयार भी हैं। करीना कपूर के बारे में खबर है कि वे 10 करोड़ में फिल्म साइन कर
रही हैं। इन नामी कलाकारों के साथ-साथ बाल कलाकार भी कम पीछे नहीं हैं। फिल्म ‘तारे जमीं पर’ के मुख्य
कलाकार दर्शील सफारी को तो नहीं भूले होंगे आप। उसे एक फिल्म के लिए कितना मिलता
होगा! अगर ज्यादा-से-ज्यादा पांच-दस लाख तक ही सोच रहे हैं तो इसका मतलब आप अखबार
ध्यान से नहीं पढ़ते। अब जरा सांस थामिए और सुनिए... खबरें अगर सच हैं तो दर्शील
को एक फिल्म के लिए 80 लाख से 1 करोड़ रुपए तक ऑफर किए जा रहे हैं। और तो और, फिल्म में काम करने का पैसा लेने के अलावा बड़े सितारे अब फिल्म की कमाई से भी
अपना हिस्सा लेने लगे हैं।
तेजी से बढ़ा है पैसा
यदि फिल्म में काम करने पर कलाकारों को ही इतना मिल रहा है तो सोचिए कि फिल्म
बनाने का कुल खर्च कितना आता होगा। बताया जाता है कि अक्षय कुमार की मुख्य भूमिका
वाली फिल्म ‘चांदनी चौक टू चाइना’ को बनाने में 100 करोड़ के आस-पास खर्च आया था। इस फिल्म के लिए हॉलीवुड के
जाने-माने स्टंट डायरेक्टर हुएन श्यू-कू की सेवाएं ली गई थीं। जाहिर है वो भी निर्माता
को सस्ते में नहीं पड़ा होगा। अब, चूंकि फिल्म बनाना एक धंधा है, तो निर्माता इसमें अपना फायदा देखकर भी चलता है। ऐसे में यह समझना मुश्किल
नहीं कि मल्टीप्लेक्स के इस जमाने में एक फिल्म इतना बिजनेस कर जाती है कि उसे
बनाने का खर्च तो निकल ही जाए, वह निर्माता को ठीक-ठाक फायदा भी दे जाए।
पिछले लगभग एक दशक से भारतीय फिल्म एवं मनोरंजन उद्योग ने बड़ी करवट ली है। इतनी
बड़ी करवट कि भारतीय अर्थव्यस्था में इस उद्योग का योगदान साल 2008 में 35,000 करोड़
रुपए हो चुका था। इस स्तर का योगदान तो विज्ञापन जगत का भी नहीं है। प्राइसवॉटरहाउस
कूपर्स की एक हालिया रिपोर्ट में साफ संकेत हैं कि साल 2013 के खत्म होते तक यह
योगदान 60,000 करोड़ रुपए तक जा पहुंचेगा। और यह उस देश का सच है, जनसंख्या के हिसाब से सिनेमाघरों की संख्या जहां दुनिया के अन्य देशों के
मुकाबले काफी कम है।
मल्टीप्लेक्स ने बदला सब
भारत के मनोरंजन उद्योग का गणित लगाने बैठेंगे तो इसके दो पहलुओं पर गौर करना
पड़ेगा। पहला यह कि हिसाब-किताब में कितना फर्क आया है; और दूसरा कि
यह फर्क लाने वाली वजहें क्या हैं। पहले पहलू पर हल्की-सी रोशनी हम डाल चुके हैं।
लेकिन जब बात करते हैं इसकी वजहों की, तो एक सीधा-सा कारण यही समझ में आता है कि
सिनेमा को दर्शक अब ज्यादा मिल रहे हैं और उसकी कमाई बढ़ रही है। लेकिन असलियत यह
नहीं है। इस एक दशक में दर्शकों की कुल संख्या में बहुत क्रांतिकारी बदलाव नहीं
आया है। हां, यह जरूर हुआ है कि रिलीज होने के पहले हफ्ते में सिनेमा हॉल में आने वाले
दर्शकों की औसत संख्या बढ़ गई है। जाने-माने फिल्म निर्माता रॉनी स्क्रूवाला मानते
हैं कि मनोरंजन उद्योग की इस लंबी छलांग की वजह यह नहीं है कि ज्यादा दर्शक
सिनेमाघरों में जाने लगे हैं। स्क्रूवाला कहते हैं, ‘इसके पीछे बड़ी वजह यह है कि प्रति दर्शक अब
ज्यादा कमाई हो रही है। यह कमाल मल्टीप्लेक्स की संख्या और टिकटों की दर बढ़ने से
हुआ है। डिजीटल तकनीक से बन रही फिल्मों के साथ-साथ बेहतर गुणवत्ता वाले सिनेमाहॉल
और दर्शकों के लिए बेहतर सुविधाएं... इन सबके चलते दर्शक को टिकट के लिए ज्यादा
पैसे देने में हिचक नहीं है। दस साल में टिकटों की कीमतें तीन गुणा तक हो गई हैं।‘
लेख के शुरू में हमने ‘काला पत्थर’ की बात की
थी। यानी, साल 1980 के आस-पास की बात। मल्टीप्लेक्स तो तब होते नहीं थे। ...और टिकट की
कीमत? लोअर क्लास की 2 रुपए 40 पैसे, अपर क्लास की 3 रुपए 60 पैसे, और बालकनी की 5 रुपए। बॉक्स में बैठना शान समझा जाता था, और टिकट की कीमत थी 6 रुपए 50 पैसे... मनोरंजन कर समेत। लेकिन तब सुविधाएं
क्या होती थीं सिनेमाघरों में? आधे समय में चाय, समोसे और मूंगफली वाले की आवाज, और सॉफ्ट ड्रिंक्स की बोतलों के साथ ओपनर
रगड़कर आपका ध्यान खींचता विक्रेता। किसी चीज की स्वच्छता की कोई गारंटी नहीं।
फिल्म देखना भी कतई आरामदायक नहीं था। कई बार चूहे पैरों पर कूदकर अचानक डरा देते
थे। ज्यादातर सीटें टूटी हुईं.... और सीट अगर बैठने लायक तो भी उनका कवर फाड़कर
बाहर निकलते नारियल के रेशे जरूर परेशान करते थे। हॉल में पंखे चलें तो चलें, नहीं तो ठीक। बिजली चली जाए तो पता नहीं कब आए। लेकिन अब तो फिल्म देखना
मनोरंजन ही नहीं एक मजेदार अनुभव भी है। ढाई-तीन घंटे का सुकूनदायक फाइव-स्टार
अनुभव! भीनी खुशबू से महकते एयरकंडीशन्ड हॉल, पीने के लिए फिल्टर्ड पानी, और खाने लिए तरह-तरह की लज्जतदार चीजें। लगातार विकास कर रही अर्थव्यवस्था में पहले से कहीं
ज्यादा कमा रहे मध्यमवर्गीय फिल्म दर्शक को इन सब सुविधाओं के लिए ज्यादा पैसे
देने में कोई हर्ज भी नहीं है। उच्च आर्थिक वर्ग का दर्शक तो पैसे हाथ में लेकर
तैयार बैठा था, उसे जब बेहतर सुविधाएं मिलीं तो उसने इन्हें हाथो-हाथ लिया। परिणाम यह कि
दर्शक नहीं बढ़े हैं, लेकिन प्रति दर्शक औसत कमाई बढ़ती गई है। और मनोरंजन उद्योग की चाल व रंग-ढंग
में इस बढ़ती कमाई का असर साफ दिख रहा है।
चार परदे, पंद्रह शो
मल्टीप्लेक्स में दर्शक को मिलने वाली सुविधाओं ने ही मनोरंजन उद्योग की
अर्थव्यवस्था को बदला हो, ऐसा नहीं है। एक अन्य तरीके से भी मल्टीप्लेक्स एक बड़ा कारक साबित हुए हैं
मनोरंजन जगत के बही-खातों की शक्ल बदलने में। और वो यह कि अब नई रिलीज फिल्म के एक
ही दिन में बारह से पंद्रह तक शो हो जाते हैं। हर बीस-पच्चीस मिनट में नया शो शुरू
हो जाता है। शहर में यदि पांच मल्टीप्लेक्स हैं तो समझिए दिन में 60 से लेकर 75
शो। आप किसी भी वक्त चले जाएं, फिल्म देखने को मिल जाएगी। फिल्म अच्छी है या
औसत या खराब, यह जब तक तय होता है फिल्म की लागत निकल आती है। और अगर फिल्म कम बजट की है तो
पहले ही हफ्ते में फायदा निकल आता है। अब फिल्म की प्रमोशन भी इतने जबरदस्त तरीके
से की जाती है कि दर्शक फिल्म देखने का मोह छोड़ नहीं पाता... खासकर, पहले दिन का
शो।
पहले की स्थितियों के बिल्कुल विपरीत है यह। पहले एक फिल्म शहर के एक ही सिनेमाघर में लगती थी, और एक दिन में फिल्म के चार ही शो रहते थे। दर्शक बंधा रहता था शो शुरू होने के समय की पाबंदी से। बहुत अच्छी फिल्में ही बिजनेस कर पाती थीं। नहीं तो एक हफ्ता ही लगता था फिल्म उतरने में। खराब फिल्म को न दर्शक मिलते थे, न टिकटों की बेतहाशा बिक्री हो पाती थी। यह सही है कि मुद्रास्फीति के कोण को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। लेकिन जितने दाम अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के बढ़े हैं, सिनेमा टिकटों के दाम उससे कई गुणा ज्यादा बढ़े हैं। अब अलग-अलग दिनों में अलग-अलग दाम हैं टिकटों के। इसी तरह, सुबह के शो के दाम कम हैं और रात होते-होते ये बढ़ने लगते हैं। किसी मल्टीप्लेक्स में सुविधाएं ज्यादा हैं तो भी टिकट के दामों में फर्क आ जाएगा। यहां टिकट 250 की है और पास वाले मल्टीप्लेक्स में वह 300 रुपए की है, तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। लेकिन दर्शक फिर भी देखता है, क्योंकि मध्यमवर्ग की खर्च करने की क्षमता बढ़ी है। और ये सारे कारक फिल्म बनाने में हो रहे भारी-भरकम खर्च में परिलक्षित हो रहे हैं।
पहले की स्थितियों के बिल्कुल विपरीत है यह। पहले एक फिल्म शहर के एक ही सिनेमाघर में लगती थी, और एक दिन में फिल्म के चार ही शो रहते थे। दर्शक बंधा रहता था शो शुरू होने के समय की पाबंदी से। बहुत अच्छी फिल्में ही बिजनेस कर पाती थीं। नहीं तो एक हफ्ता ही लगता था फिल्म उतरने में। खराब फिल्म को न दर्शक मिलते थे, न टिकटों की बेतहाशा बिक्री हो पाती थी। यह सही है कि मुद्रास्फीति के कोण को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। लेकिन जितने दाम अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के बढ़े हैं, सिनेमा टिकटों के दाम उससे कई गुणा ज्यादा बढ़े हैं। अब अलग-अलग दिनों में अलग-अलग दाम हैं टिकटों के। इसी तरह, सुबह के शो के दाम कम हैं और रात होते-होते ये बढ़ने लगते हैं। किसी मल्टीप्लेक्स में सुविधाएं ज्यादा हैं तो भी टिकट के दामों में फर्क आ जाएगा। यहां टिकट 250 की है और पास वाले मल्टीप्लेक्स में वह 300 रुपए की है, तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। लेकिन दर्शक फिर भी देखता है, क्योंकि मध्यमवर्ग की खर्च करने की क्षमता बढ़ी है। और ये सारे कारक फिल्म बनाने में हो रहे भारी-भरकम खर्च में परिलक्षित हो रहे हैं।
विदेशी बाज़ारों ने चढ़ाई पतंग
भारतीय मनोरंजन उद्योग की अर्थव्यवस्था की पतंग अगर तेजी से चढ़ती गई है, तो इसके बड़े कारणों में एक यह भी है कि अब भारतीय सिनेमा के सामने देसी बाजार
ही नहीं हैं, बल्कि विदेशी बाजार भी खुले हैं। अब फिल्म को भारत के साथ-साथ अमेरिकी व
यूरोपीय बाजारों में भी रिलीज किया जा रहा है। खासकर उन स्थानों पर जहां भारतवंशी
ज्यादा तादाद में हैं। और जहां नहीं हैं, वहां इन्हें अंग्रेजी या स्थानीय भाषा के
सब-टाइटल्स के साथ दिखाया जा रहा है। नई प्रवृत्ति तो यह भी है कि फिल्म को विदेशी
बाजारों में वहां की भाषा में डब करके ही उतारा जाए। हालिया फिल्म ‘डेल्ही बेली’ को हिंदी व
अंग्रेजी दोनों भाषाओं में रिलीज किया गया था। फिल्म के निर्माण के खर्च में सिर्फ
डबिंग का खर्च बढ़ा, लेकिन दर्शक खींचने का लक्ष्य कई गुणा बड़ा हो गया। यानी, पैसा अब दुनिया के कोने-कोने से आ रहा है। यह पैसा फिल्म निर्माण का बजट नहीं
बढ़ाएगा तो कहां जाएगा? अगली फिल्म में और ज्यादा कमाई का लक्ष्य लेकर चलेगा निर्माता। इसके लिए वो
ज्यादा बिकने वाले कलाकारों को उनके मुंहमांगे दाम भी देगा और अपनी फिल्म को
तकनीकी रूप से ज्यादा मजबूत बनाकर पेश भी करेगा।
विज्ञापन का
जरिया बनीं फिल्में
पुरानी फिल्मों के दृश्यों को जरा नजरों के सामने लेकर आइए। शायद ही कोई ऐसा
दृश्य याद आता हो जिसमें लगता हो कि कलाकार किसी उत्पाद का विज्ञापन कर रहे हैं।
लेकिन अब यह प्रवृत्ति जोर पकड़ चुकी है, और फिल्म निर्माण कंपनियों को अतिरिक्त कमाई
भी दे रही हैं। कितने ही दृश्य आपको याद आ जाएंगे जिनमें डांस या कॉलेज फेयरवेल के
दौरान पीछे किसी उत्पाद का विज्ञापन बोर्ड नजर आता है। कितनी ही बार ऐसे दृश्यों, खासकर कॉलेज की फेयरवेल पार्टी या डांस कंपीटिशन के दृश्यों, में यह बोला जाता है कि फलां-फलां के सौजन्य से इसे पेश किया जा रहा है।
सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली एक नामी कंपनी का जिक्र तो कितनी ही बार आता है। गानों
तक में उत्पादों के नाम इस्तेमाल किए जाने लगे हैं। ‘मुन्नी
बदनाम..’ गीत में झंडू बाम का जिक्र है। झंडू कंपनी का बयान आया कि यह गाना रिलीज होने
के बाद बाम की बिक्री कई गुणा बढ़ गई। बहुत बार दृश्यों में कुछ खाते-पीते दिखाया
जाता है तो कलाकार उस ब्रांड का नाम लेकर मांगते हैं, या फिर उस
उत्पाद के ब्रांड को कैमरे में भरपूर कैद किया जाता है। जाहिर है, जिन कंपनियों के उत्पादों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञापन किया
जाता है फिल्म में, उनसे मोटे पैसे वसूल किए जाते हैं। फिल्मों के बढ़ते बजट में यह कमाई खासी
राहत दे जाती है।
फिल्म उद्योग के लिए पैसा कमाने के साथ-साथ बेशक यह बड़े गर्व की बात होगी कि
आज के दिन भारतीय अर्थव्यवस्था में उसका प्रमुख योगदान है। लेकिन इस उद्योग से
जुड़े लोग यह भी मानते हैं कि दोनों में यह संबंध पारस्परिक है। अमिताभ बच्चन को
ही लें, तो उन्होंने कुछ साल पहले अमेरिका में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान कहा था- ‘भारत की तेजी
से बढ़ती अर्थव्यवस्था ने फिल्म उद्योग का बड़ा भला किया है। जब कोई देश आर्थिक
रूप से मजबूत होता जाता है तो उसकी हर चीज पर दुनिया की नजर जाती है। यही वजह है
कि भारत से आने वाली हर शै पर गौर किया जा रहा है। भारतीय सिनेमा भी उनमें से एक
है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखते हुए फिल्में
बनाई जा रही हैं। लेकिन अगर वे हमारी फिल्में देख रहे हैं तो बढ़िया है।’ अमिताभ की इस
बात के बाद अब यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि कौन किसका फायदा कर रहा है। लेकिन ‘मुर्गी पहले
या अंडा’ जैसी बहस में न पड़ते हुए यह बेखटके कहा सकता है कि भारतीय मनोरंजन उद्योग आज
‘दसों उंगलियां में और सिर कड़ाही में’ की कहावत पर पूरी तरह खरा उतर चुका है।
यह आलेख 'अहा ज़िंदगी' के विशेष वार्षिक अंक में प्रकाशित हुआ है।
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