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Showing posts from August, 2013

‘सत्याग्रह’ में सत्य भरपूर मगर आग्रह कम

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क्रांति तब होती है जब अति हो जाए ; भीतर उबल रही भावनाएं जनाक्रोश की शक्ल में तब बाहर आती हैं जब कोई एक व्यक्ति पहला कदम बढ़ाए। यह ऐतिहासिक सत्य है कि नेतृत्व के बिना कारवां नहीं बनता...चाहे रास्ता सत्य का ही क्यों न हो, क़दम बढ़ाने वालों का मंज़िल पर अधिकार कितना भी क्यों न हो ! इसी सत्य को प्रकाश झा अपनी नई फ़िल्म ‘ सत्याग्रह ’ के ज़रिये परदे पर लेकर आए हैं। फ़िल्म के मूल में अण्णा हज़ारे का आंदोलन है, यह बात झा ने कभी छुपाकर नहीं रखी। यह ज़रूर है कि कथानक को उन्होंने सिनेमा की ज़रूरतों के हिसाब से बुना है और उसमें जहां-तहां व्यावसायिक मसाले भी डाले हैं। ऐसा नहीं होता तो फ़िल्म अण्णा के आंदोलन का महज चित्रण बनकर रह जाती। हालांकि, इस सबके बीच सच यही है कि अपने नेक इरादे के बावजूद ‘ सत्याग्रह ’ केवल उस सत्य को परदे पर पेश करने का माध्यम मात्र बनकर रह गई है जिससे हम सब पहले से परिचित हैं।       मध्य भारत के एक गांव में एक इंजीनियर की मौत की घटना से दिशा पकड़ती इस कहानी अण्णा के आंदोलन पर खत्म होती है। कहानी को असल में अलग-अलग समयकाल की दो घटनाओं को जोड़कर बुना गया है। दर्शक दस

शानदार रस हैं ‘मद्रास कैफ़े’ के मेन्यू में!

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‘ मद्रास कैफ़े ’ के रिलीज़ से पहले इसके निर्देशक शुजित सरकार बार-बार कह रहे थे कि वास्तविकता के जितना क़रीब उनकी यह फ़िल्म लगेगी उतना हिंदी सिनेमा की इससे पहले शायद ही कोई स्पाई-पॉलिटिकल थ्रिलर फ़िल्म लगी होगी। ...और अब जब फ़िल्म परदे पर सबके सामने है तो इसे देखते समय शुजित की ईमानदारी का कायल हुए बिना आप नहीं रह सकते। इसका हर दृश्य यूं लगता है मानो 20 साल पीछे के सब हालात आपकी आंखों के सामने घटित हो रहे हों।       श्रीलंका के गृहयुद्ध को आधार बनाकर रचे गए एक कथानक को सच के क़रीब ले जाकर परदे पर उतारना ही ‘ मद्रास कैफ़े ’ की ख़ूबी कही जाएगी। हालांकि, फ़िल्म कोई पहलू ऐसा नहीं है जिसे अच्छे से मांज कर पेश न किया गया हो। क्या कोई सोच सकता है कि आज जिस हिंदी सिनेमा में बिना आइटम सॉन्ग के फ़िल्म बनाने की कल्पना करने तक की हिम्मत कोई फिल्मकार नहीं जुटा पा रहा हो और फ़िल्मों में हर कदम पर संवाद इस कदर ठूंसे जा रहे हों कि दर्शक को परदे पर चलती तस्वीरें समझने का मौका तक न मिले, वहां कोई ऐसी फ़िल्म भी देखने को मिल सकती है जिसमें केवल एक गीत हो और वह भी कहानी पूरी हो चुकने के बाद आए ? ‘

ढीली रही ‘वन्स अपॉन ए टाइम...’ की दोबारा पेशकश

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जब दर्शक एक दमदार फ़िल्म देख चुका हो, तो उसकी अगली कड़ी से उसकी अपेक्षाएं बेहद बढ़ी हुई रहती हैं। इस वजह से फ़िल्मकार पर ज़िम्मेदारी भी यक़ीनन ज़्यादा हो जाती है। लेकिन इस ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते वक़्त हर कोई उन अपेक्षाओं को पूरा कर पाए, यह हमेशा नहीं हो पाता। ‘ वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई - दोबारा ’ के साथ ही ऐसा ही कुछ हुआ है। ‘ वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई ’ के मुक़ाबले उसका यह सीक्वल न केवल ढीला है बल्कि जगह-जगह पर इसके कितने ही सिरे खुले छोड़ दिए गए हैं।       फ़िल्म का कथानक अस्सी के दशक का है और अंडरवर्ल्ड डॉन शोएब (या कि शोहेब ? कह नहीं सकते क्योंकि कोई उसे शोएब कह रहा है तो कोई शोहेब ! क्या निर्देशक एवं संवाद-लेखक डबिंग के समय मौजूद नहीं थे ? ) के किरदार में अक्षय कुमार की असरदार मौजूदगी ही इसकी हाईलाइट कही जा सकी है। एक डॉन की क्रूरता व कमीनेपन को अक्षय अपने अंदाज़ में बख़ूबी लेकर आए हैं, मगर उन्हें दिए गए दार्शनिकता-भरे संवाद जहां एक तरफ शोएब के किरदार को विशिष्ट बनाते हैं वहीं उसकी धार को कुंद भी कर गए हैं। कुछ अलग पेश करने के चक्कर में इतना बह जाना कि एक समय बाद हर दूसरे

शाहरुख-दीपिका के इंजन ने खींची ‘चेन्नई एक्सप्रेस’

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ख़ूबसूरत लोकेशन्स, शानदार फ़िल्मांकन, शाहरुख की ताज़गी-भरी मौजूदगी, दीपिका का दमदार अभिनय, बीच-बीच में हल्के-फुल्के लम्हे, चुटीले संवाद, लेकिन एक कमज़ोर पटकथा... ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ का सार यही है। मुंबई से शुरू हुई ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ के रास्ते में फन स्टेशन जगह-जगह हैं, तो एक्शन स्टेशन भी कई बार आते हैं। बीच-बीच में गाड़ी इमोशन स्टेशन पर भी रुकती है, जो राहत ही लेकर आती है। ...और जब कहीं लगने लगता है कि ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ अब रुकी कि तब रुकी, वहां कभी शाहरुख कभी दीपिका तो कभी दोनों मिलकर उसे खींच ले जाते हैं।       फ़िल्म की शुरूआत एक संपन्न परिवार के व्याख्यात्मक परिचय से है जिसका सूत्रधार फ़िल्म का मुख्य किरदार ख़ुद है। शुरूआती कुछ मिनटों में ही जिस गति से एक घटनाक्रम निपटता है, वह दर्शक को बांधने के लिए काफी है। यानी, ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ में सवार होने के लिए आपको ज़्यादा देर नहीं करनी पड़ती। रेलगाड़ी में राहुल का किरदार में शाहरुख और मीनाअम्मा के भूमिका में दीपिका के बीच गीतों के ज़रिये संवाद का आयडिया गुदगुदा जाता है, पर जब यही आयडिया मध्यांतर के बाद एक मारधाड़ के दृश

पल-पल गुदगुदा जाती है ‘चोर चोर सुपर चोर’

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अगर हास्य केवल संवादों में होता तो चार्ली चैपलिन को कोई नहीं जान पाता। असल हास्य परिस्थितियों में छुपा होता है और संवाद उस हास्य के सोने पर महज़ सुहागा बुरकने का काम करते हैं। यह बात शायद युवा निर्देशक के. राजेश अच्छे से समझते हैं। अपनी फ़िल्म ‘ चोर चोर सुपर चोर ’ में उन्होंने इसी बात को हथियार बनाया है। अपनी इसी ख़ासियत की वजह से ‘ चोर चोर सुपर चोर ’ ऐसी हल्की-फुल्की कॉमेडी के रूप में परदे पर चलती जाती है जिसके ज़्यादातर कलाकार नए हैं और हालात हमें परिचित-से लगते हैं।       कोई किसी भरोसे से खेलकर उसका फ़ायदा उठा जाए तो उंगली टेढ़ी करना बनता है, बॉस ! इस फ़िल्म का सेंट्रल आयडिया यही है। यानी, धोखेबाज़ों के लिए चोर से सुपर चोर हो जाओ। जेबकतरे के रूप में अपनी पहचान से छुटकारा पाकर मेहनत से रोज़ी-रोटी कमाने निकले सतबीर को जल्द समझ आ जाता है कि शराफ़त का रास्ता इतना भी आसान नहीं है और यह दुनिया प्यार को हथियार बनाकर चूना लगाने के लिए तैयार बैठी है। ऐसे में ख़ुद को बचाने के लिए मन-मसोसकर उसे उसी रास्ते पर चलना होता है जिसे वह छोड़ना चाह रहा होता है। ‘ लोहे को लोहा काटता है ’ की तर्

अटकते-अटकते फ़िल्म आख़िर हो गई ‘बीए पास’

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इधर कुछ समय से कम बजट में बनी ऐसी फ़िल्में आ रही हैं जो क़ाबिल कलाकारों तथा अच्छे कॉन्सेप्ट का ऐसा शानदार टू-इन-वन पैकेज पेश कर रही हैं कि कुछेक अंतर्निहित ख़ामियों एवं कहीं-कहीं अतिरंजना के बावजूद वे दर्शक को बांधे रखती हैं। ऐसी ही कुछ फ़िल्मों में एक ‘ बीए पास ’ भी है। निर्देशक अजय बहल की यह पहली फ़िल्म है जो हालात के मकड़जाल में उलझकर एक युवा लड़के के जिगोलो यानी पुरुष-वेश्या बनते जाने की कहानी है। यह आख़िरकार दर्दनाक मोड़ पर आकर ख़त्म होती है... लेकिन हर कदम पर इरोटिक दृश्यों की ख़ुराक परोसने के बाद। फ़िल्म में नैतिकता का सवाल नहीं उठाया गया है, मगर एक सामान्य सवाल अपने जवाब के साथ ज़रूर मौजूद है कि अनैतिक रास्ते पर चलकर ज़िंदगी की गाड़ी सुगमता से चल तो पड़ेगी मगर इसमें सुख किसी मोड़ पर नहीं है।       ‘ बीए पास ’ एक वयस्क फ़िल्म है जो अच्छे कॉन्सेप्ट पर बनी है, मगर ज़्यादातर समय यह फ़िल्म इरोटिक दृश्यों की पेशकश में इतना बह गई है कि कथानक के मूल तत्व से भटकने लगती है। इसका मज़बूत कॉन्सेप्ट ढीला पड़ता जाता है और एकरसता हावी होती जाती है। एक मोड़ पर आकर यही लगता है कि क्या इरो