अटकते-अटकते फ़िल्म आख़िर हो गई ‘बीए पास’

इधर कुछ समय से कम बजट में बनी ऐसी फ़िल्में आ रही हैं जो क़ाबिल कलाकारों तथा अच्छे कॉन्सेप्ट का ऐसा शानदार टू-इन-वन पैकेज पेश कर रही हैं कि कुछेक अंतर्निहित ख़ामियों एवं कहीं-कहीं अतिरंजना के बावजूद वे दर्शक को बांधे रखती हैं। ऐसी ही कुछ फ़िल्मों में एक बीए पास भी है। निर्देशक अजय बहल की यह पहली फ़िल्म है जो हालात के मकड़जाल में उलझकर एक युवा लड़के के जिगोलो यानी पुरुष-वेश्या बनते जाने की कहानी है। यह आख़िरकार दर्दनाक मोड़ पर आकर ख़त्म होती है... लेकिन हर कदम पर इरोटिक दृश्यों की ख़ुराक परोसने के बाद। फ़िल्म में नैतिकता का सवाल नहीं उठाया गया है, मगर एक सामान्य सवाल अपने जवाब के साथ ज़रूर मौजूद है कि अनैतिक रास्ते पर चलकर ज़िंदगी की गाड़ी सुगमता से चल तो पड़ेगी मगर इसमें सुख किसी मोड़ पर नहीं है।
      बीए पासएक वयस्क फ़िल्म है जो अच्छे कॉन्सेप्ट पर बनी है, मगर ज़्यादातर समय यह फ़िल्म इरोटिक दृश्यों की पेशकश में इतना बह गई है कि कथानक के मूल तत्व से भटकने लगती है। इसका मज़बूत कॉन्सेप्ट ढीला पड़ता जाता है और एकरसता हावी होती जाती है। एक मोड़ पर आकर यही लगता है कि क्या इरोटिका के सिवा कुछ और भी है यह फ़िल्म? आखिर, 95 मिनट की फ़िल्म में एक तरह के दृश्यों का कितना दोहराव देखेगा कोई? हालांकि, आखिरी 20-22 मिनट में चीज़ें बदलती हैं, कहानी में नए मोड़ आते हैं और एकरसता टूटने लगती है। यहीं पर फ़िल्म फिर से खड़ी होती है और अपने अंजाम तक जा पहुंचती है।
      फ़िल्म की ख़ासियत इस बात में है कि यह महानगरीय ज़िदगी की कई कड़वी हक़ीकतों से हमारा परिचय कराती है। रिश्तों के प्रति हमारे दिलों में घर करता जा रहा ठंडापन, ज़्यादा पाने की चाह में अनैतिकता के दलदल में धंसने से परहेज़ न करने की सोच, महज़ कुछ पल के लिए किसी का साथ पाने को छटपटाता अकेलापन और हॉस्टल्स की आड़ में चलता देह व्यापार... ये सब मुद्दे हैं जिन्हें फ़िल्मकार ने बिना शोर-शराबा किए टटोलने की कोशिश की है, जिसे सराहनीय कहा जाएगा। इसके अलावा फ़िल्मांकन की गुणवत्ता, कैमरा एंगल्स, लोकेशन्स तथा अभिनय के लिहाज से भी फ़िल्म अगली पंक्ति में खड़ी दिखती है। फिल्म की ख़ामी यही है कि इसमें कई जगह कामुक दृश्य बेवजह भरे गए हैं। क्या यह एक अच्छे कथानक में कुछ मसाला भरकर इसे ज़्यादा आकर्षक बनाने की सोच है? अगर फ़िल्म के अंत में नायक के साथ हुए दुराचार को सांकेतिक तरीके से दिखाया जा सकता है, तो उसके जिगोलो अवतार के लिए सेक्स दृश्य बार-बार दिखाने की कहां ज़रूरत रह जाती है! पत्नी को एक युवा लड़के के साथ आपत्तिजनक मुद्रा में देख लेने पर मिस्टर खन्ना की प्रतिक्रिया क्या अतिरंजना नहीं है? क्या इसे दूसरी ज़्यादा स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में पेश नहीं किया जा सकता था?
      हालांकि इन सवालों के बीच बीए पास के कलाकार एक असरदार जवाब देते नजर आते हैं। निम्फोमैनियक सारिका के मुख्य किरदार में शिल्पा शुक्ला ने जहां बेहतरीन काम किया है, वहीं हालात से जूझते मुकेश की भूमिका में शादाब कमाल ने विविध मनःस्थितियों को ख़ूबसूरती से परदे पर जिया है। जॉनी के किरदार को दिब्येंदु भट्टाचार्य ने जिस दक्षता से निभाया है, वह उनकी अभिनय क्षमता को रेखांकित करता है। इनके अलावा, बुआजी की भूमिका को गीता अग्रवाल शर्मा बेहद परिपक्वता से जी गई हैं जो उनके एक मंझी हुई अभिनेत्री होने का सुबूत है। कुल मिलाकर बीए पास एक ऐसी फ़िल्म है जो अपनी कुछ कमियों के बावजूद आपको अपने साथ जोड़े रखती है।

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