शाहरुख-दीपिका के इंजन ने खींची ‘चेन्नई एक्सप्रेस’

ख़ूबसूरत लोकेशन्स, शानदार फ़िल्मांकन, शाहरुख की ताज़गी-भरी मौजूदगी, दीपिका का दमदार अभिनय, बीच-बीच में हल्के-फुल्के लम्हे, चुटीले संवाद, लेकिन एक कमज़ोर पटकथा... चेन्नई एक्सप्रेस का सार यही है। मुंबई से शुरू हुई चेन्नई एक्सप्रेस के रास्ते में फन स्टेशन जगह-जगह हैं, तो एक्शन स्टेशन भी कई बार आते हैं। बीच-बीच में गाड़ी इमोशन स्टेशन पर भी रुकती है, जो राहत ही लेकर आती है। ...और जब कहीं लगने लगता है कि चेन्नई एक्सप्रेसअब रुकी कि तब रुकी, वहां कभी शाहरुख कभी दीपिका तो कभी दोनों मिलकर उसे खींच ले जाते हैं।
      फ़िल्म की शुरूआत एक संपन्न परिवार के व्याख्यात्मक परिचय से है जिसका सूत्रधार फ़िल्म का मुख्य किरदार ख़ुद है। शुरूआती कुछ मिनटों में ही जिस गति से एक घटनाक्रम निपटता है, वह दर्शक को बांधने के लिए काफी है। यानी, चेन्नई एक्सप्रेस में सवार होने के लिए आपको ज़्यादा देर नहीं करनी पड़ती। रेलगाड़ी में राहुल का किरदार में शाहरुख और मीनाअम्मा के भूमिका में दीपिका के बीच गीतों के ज़रिये संवाद का आयडिया गुदगुदा जाता है, पर जब यही आयडिया मध्यांतर के बाद एक मारधाड़ के दृश्य में भी आता है तो दोहराव से ज़्यादा कुछ नहीं लगता। हालांकि, तेज़ शुरूआत के बाद फ़िल्म के सिरे मध्यांतर के बाद जाकर ही पकड़ में आते हैं। पटकथा ने जो मात खाई है वह मध्यातंर के पहले हिस्से में ही है।
      अपने आरंभिक एवं अंतिम हिस्सों में यह पूरी तरह से शाहरुख की फ़िल्म है। शुरू में चुलबुले शाहरुख हैं, तो आखिर में जुनूनी शाहरुख। बीच में रोहित शेट्टी का एक्शन स्टाइल ज़रूर भारी पड़ता है, लेकिन अचानक ही उस पर रोमांटिक शाहरुख हावी होते दिख जाते हैं। बड़ी बात यह कि इस सबके दौरान दीपिका पादुकोण ने कहीं भी ख़ुद की मौजूदगी धूमिल नहीं पड़ने दी है। मत भूलिए कि यह रोहित की फ़िल्म है, तो इसमें वो सारे एक्शन सीन तो होंगे ही जो उनकी फ़िल्मों में होते आए हैं। परदे पर कई बार दिख चुके एक्शन दृश्यों का ऊबाऊपन दर्शक का ध्यान ज़रूर बंटाता है, लेकिन फिर कभी चाय के बागान आपको मोह लेते है तो कभी रामेश्वर के ढलती शाम के दृश्य राहत दे जाते हैं। फ़िल्म के तकनीकी पक्ष की बात करें तो यह बेहद मजबूत है। न केवल शानदार लोकेशन्स चुनी गई हैं, बल्कि उनका फ़िल्मांकन भी बेहतरीन है। फ़िल्म एक विज़ुअल डिलाइट है जिसमें लॉन्ग शॉट्स को ख़ूबसूरती से चित्रित किया गया हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी... गीत कैनवस पर हुई चित्रकारी से कम नहीं लगता है। फ़िल्म का मुख्य किरदार गोवा नहीं पहुंच पाता, लेकिन दर्शक परदे पर दूधसागर के ज़रिये गोवा की उस ख़ूबसूरती को देखता है जो गोवा के नाम पर उसने पहले शायद नहीं देखी है।
      शाहरुख एक बार फिर राहुल के अवतार में परदे पर हैं, पर इस बार इसमें कई रंग हैं। वह कहीं पर दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के राज नजर आते हैं, तो कहीं प्यार को पाने के लिए जान दांव पर लगाने वाले दिल से के अमरकांत की याद दिलाते हैं। कुल मिलाकर वह दर्शकों को अच्छे लगेंगे। वहीं, अगर फ़िल्म बिल्लूके एक गीत में स्पेशल अपीयरेंस को छोड़ दें तो दीपिका दूसरी बार शाहरुख के साथ दिखी हैं। लगता नहीं कि यह वही दीपिका हैं जो ओम शांति ओम में शाहरुख के सामने नौसिखिया नज़र आई थीं। छह साल बाद अभिनय के स्तर पर वह शाहरुख का मुक़ाबला करती नज़र आई हैं। वैसे कॉकटेल तथा ये जवानी है दीवानी जैसी पिछली कुछ फ़िल्मों से दीपिका का अलग ही अंदाज़ नज़र आ रहा है। दीपिका के पिता की भूमिका में तमिल अभिनेता सत्यराज का चयन बेहतर रहा है। तंगबली के किरदार में निकेतन धीर के पास दिखाने के लिए कुछ ज़्यादा नहीं था। जो था, वह उसमें ठीक ही रहे हैं।
      यह फ़िल्म अपने लम्हों के लिए देखे जाने लायक है। कोई इसे ज़्यादा सोच-विचार कर देखेगा तो मज़ा नहीं आएगा। यह रोहित शेट्टी की मुहर वाली फ़िल्म है, जिसकी एंटरटेनमेंट वैल्यू ब्रांड शाहरुख खान में छुपी है। हां, इसमें तमिल भाषा का तड़का ठीक-ठाक है। अगर सब-टाइटल्स साथ होते तो मनोरंजन की ख़ुराक यक़ीनन बढ़नी ही थी।

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