ढीली रही ‘वन्स अपॉन ए टाइम...’ की दोबारा पेशकश
जब दर्शक एक दमदार फ़िल्म देख चुका हो, तो उसकी अगली कड़ी से उसकी अपेक्षाएं बेहद बढ़ी हुई रहती हैं। इस वजह से फ़िल्मकार पर ज़िम्मेदारी भी यक़ीनन ज़्यादा हो जाती है। लेकिन इस ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते वक़्त हर कोई उन अपेक्षाओं को पूरा कर पाए, यह हमेशा नहीं हो पाता। ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई - दोबारा’ के साथ ही ऐसा ही कुछ हुआ है। ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ के मुक़ाबले उसका यह सीक्वल न केवल ढीला है बल्कि जगह-जगह पर इसके कितने ही सिरे खुले छोड़ दिए गए हैं।
फ़िल्म का कथानक अस्सी के दशक का है और अंडरवर्ल्ड डॉन शोएब (या कि शोहेब? कह नहीं सकते क्योंकि कोई उसे शोएब कह रहा है तो कोई शोहेब! क्या निर्देशक एवं संवाद-लेखक डबिंग के समय मौजूद नहीं थे?) के किरदार में अक्षय कुमार की असरदार मौजूदगी ही इसकी हाईलाइट कही जा सकी है। एक डॉन की क्रूरता व कमीनेपन को अक्षय अपने अंदाज़ में बख़ूबी लेकर आए हैं, मगर उन्हें दिए गए दार्शनिकता-भरे संवाद जहां एक तरफ शोएब के किरदार को विशिष्ट बनाते हैं वहीं उसकी धार को कुंद भी कर गए हैं। कुछ अलग पेश करने के चक्कर में इतना बह जाना कि एक समय बाद हर दूसरे कदम पर परोसे जा रहे भारी-भरकम संवाद बोझिल लगने लगें, तो इससे फ़िल्म ऊबाऊ होने तथा उसकी गति धीमी पड़ने के अलावा कुछ और नहीं होता।
फ़िल्म मूल रूप से एक डॉन के प्रेम में पड़ने की गाथा है, जिसमें उसे अपने ही पाले-पोसे हुए असलम का विरोध झेलना है। इसमें अंडरवर्ल्ड की आपसी जंग का रंग इतना ही है कि यह ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ का सीक्वल लग सके। पहली फ़िल्म जैसा रोमांच इसमें नहीं है जो आपको सीट पर सीधा बैठाए रख पाए। सीक्वल में कलाकार बदले हुए हैं। पहली फ़िल्म में शोएब की भूमिका में इमरान हाशमी थे तो सीक्वल में अक्षय दिखते हैं। वहीं, मुमताज़ की भूमिका में प्राची देसाई की जगह सोनाली बेंद्रे आ गई हैं। मुमताज़ का किरदार नहीं के बराबर है। नया किरदार असलम है जिसे इमरान खान ने निभाया है। इमरान की बदकिस्मती यह रही है कि उनके किरदार को पूरी तरह से गढ़ा नहीं गया है। असलम व शोएब का दिल जीतने वाली जैसमीन की भूमिका में सोनाक्षी सिन्हा परदे पर हैं, मगर इस किरदार में बुनावट की कमी दिखती है। मुंबई में हीरोइन बनने आई जैसमीन को दिमाग़ से इतना पैदल बताया गया है कि वह ‘इंटरमीडिएट’ तथा ‘इंटरकोर्स’ में फ़र्क़ तक नहीं जानती है। शायद यह निर्देशक मिलन लूथरिया की सोची-समझी नीति हो कि फ़िल्म में शोएब के किरदार को ही उभारकर रखा जाए।
अपने कंधों पर पूरा भार होने के बावजूद अक्षय यहां अच्छा खेल गए हैं। काश! उन्हें कम भारी संवाद दे दिए जाते। वहीं, सोनाक्षी को समझना होगा कि ‘लुटेरा’ में उनके कमाल के बाद उन्हें हर फ़िल्म में वही स्तर बनाए रखना होगा। तय है कि जो उन्होंने इस फ़िल्म में किया है, उसे वह दोहराना नहीं चाहेंगी। इमरान के पास बहुत कुछ नहीं था करने को। उन्हें जो बिखरा-बिखरा किरदार मिला, उसे निभाने में वह औसत ही रहे हैं। सोनाली के दो-एक दृश्य हैं, मगर कह सकते हैं कि वही कुछेक पल हैं जिनमें कोई कलाकार अक्षय के बराबर खड़ा दिखा है। वहीं, डेढ़ टांग की भूमिका में पितोबाश त्रिपाठी अपनी मौजूदगी दर्ज़ करा गए हैं।
फ़िल्म को जहां इसका फिल्मांकन ऊपर उठाता है, वहीं कथानक इसे नीचे खींचता है। फ़िल्म डगह-जगह आयडिया की कमी से जूझ रही है, इसका अंदाज़ा इससे लग जाता है ‘इंटरकोर्स’ वाले मज़ाक पर बार-बार खेलने की असफल कोशिश की गई है। इसी तरह तारों की बातें बार-बार हैं, छत से रात में मुंबई भी बहुत बार दिखी है। वहीं, जज़्बाती दृश्यों में भी वो आकर्षण नहीं है कि दर्शक उन दृश्यों में ख़ुद को बहता हुआ महसूस कर पाए। संवाद लिखने में रजत अरोड़ा का ज़्यादा ही शायरना हो जाना इसके पैनेपन को ख़त्म कर रहा है, पर इसी अंदाज़ को रजत जब गीतों में ढालते हैं तो इक्कीस हो जाते हैं। गीत ‘ये तूने क्या किया...’ फ़िल्म की जान है। कुल मिलाकर यही कि दर्शक इस फ़िल्म में उस मिलन लूथरिया को तलाशता रह जाता है, जिनकी झलक वह ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ तथा ‘द डर्टी पिक्चर’ में देख चुका है।
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