जाने-माने हॉलीवुड डायरेक्टर अल्फ्रेड हिचकॉक ने एक बेहद पते की बात कही थी। वो ये कि एक कामयाब फिल्म बनाने के लिए केवल तीन चीजों की जरूरत है- स्क्रिप्ट, स्क्रिप्ट, और स्क्रिप्ट। अगर इशारा समझ रहे तो ठीक है... और अगर नहीं तो बताए देता हूं। फिल्म बनाने की कला के नजरिये से देखें तो 'पीकू' एक बेहतरीन फिल्म है, जो देखने वालों को हर हाल में पसंद आनी चाहिए। या कहें कि देखने वाले के दिल में उतर जानी चाहिए। 'पीकू' देखने के दौरान अगर खुद से यह पूछेंगे कि इसमें हीरो कौन है, तो जो पहला नाम ध्यान में आएगा वो इसकी स्क्रिप्ट राइटर जूही चतुर्वेदी का होगा। क्योंकि अगर फिल्म की कहानी देखेंगे तो ये बॉलीवुड के वनलाइनर कॉन्सेप्ट पर खरी उतरती है। वाकई, 'पीकू' की कहानी को एक ही लाइन में समेटा जा सकता है। अगर पारंपरिक नजरिये से देखें तो कहानी कुछ भी नहीं है। जो कुछ है वो इसके लम्हे हैं, जो शुरू से अंत तक आपको जोड़े रखते हैं; जो फिल्म के किरदारों में अापको अपनी ही झलक देखने को मजबूर करते हैं। इतना कि हर लम्हा आपको अपनी जिंदगी से चुराया हुआ लगता है...और इसके लिए आप जूही को मन ही मन द...
Comments
@प्रतिभा, वैसे 'सब तृप्त' की स्थिति विरले ही आती है..
ये ख़ामोशी की जुबां....))
हम तो बस होंठों का लरजना ही देखते रहे ....:))
लाजवाब भावनाये..नाज़ुक सी अभिव्यक्ति..
सस्नेह..
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हर राहे उन्हें याद करती रहीं
यकीन था नहीं गिरने देंगे मुझे
उनकी ख़ामोशी पे ऐतबार करती रही ||
kafi sundar shabd sanyojan...
@ अंजू जी, बहुत उम्दा लिखा...
new post...वाह रे मंहगाई...
इस पोस्ट पर आए कमेंट की वाह-वाह पर मत जाना। ऐसी वाह वाहियां छह रुपये की सिगरेट में भरी पड़ी रहती हैं। लेकिन प्रतिभा जी के कमेंट से हैरान हूं। वे सचमुच गंभीर पाठक हैं, अगर सिर्फ हौसला बढ़ाने के लिए की है, तो लानत अजय भाई आपको लिखने के लिए हौसले की तो कतई जरूरत नहीं है। आपको तो चाहिए निर्मम आलोचना दृष्टि, जो मुक्तिबोध के पास थी, नामवर खो चुके, विश्वनाथ जी अपने में गुम हैं, और मैनेजर पांडे इतिहास में चक्कर काट रहे हैं। बचा बेचारा मैं, तो अखबारी काम कर लूं।