‘सत्याग्रह’ में सत्य भरपूर मगर आग्रह कम

क्रांति तब होती है जब अति हो जाए; भीतर उबल रही भावनाएं जनाक्रोश की शक्ल में तब बाहर आती हैं जब कोई एक व्यक्ति पहला कदम बढ़ाए। यह ऐतिहासिक सत्य है कि नेतृत्व के बिना कारवां नहीं बनता...चाहे रास्ता सत्य का ही क्यों न हो, क़दम बढ़ाने वालों का मंज़िल पर अधिकार कितना भी क्यों न हो! इसी सत्य को प्रकाश झा अपनी नई फ़िल्म सत्याग्रह के ज़रिये परदे पर लेकर आए हैं। फ़िल्म के मूल में अण्णा हज़ारे का आंदोलन है, यह बात झा ने कभी छुपाकर नहीं रखी। यह ज़रूर है कि कथानक को उन्होंने सिनेमा की ज़रूरतों के हिसाब से बुना है और उसमें जहां-तहां व्यावसायिक मसाले भी डाले हैं। ऐसा नहीं होता तो फ़िल्म अण्णा के आंदोलन का महज चित्रण बनकर रह जाती। हालांकि, इस सबके बीच सच यही है कि अपने नेक इरादे के बावजूद सत्याग्रह केवल उस सत्य को परदे पर पेश करने का माध्यम मात्र बनकर रह गई है जिससे हम सब पहले से परिचित हैं।
      मध्य भारत के एक गांव में एक इंजीनियर की मौत की घटना से दिशा पकड़ती इस कहानी अण्णा के आंदोलन पर खत्म होती है। कहानी को असल में अलग-अलग समयकाल की दो घटनाओं को जोड़कर बुना गया है। दर्शक दस साल पहले बिहार में सिविल इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या का मामला नहीं भूले होंगे। अपने विभाग में चल रहे भ्रष्टाचार की पोल खोलने जा रहे सत्येंद्र ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था। इसके बाद उनकी हत्या कर दी गई थी। झा की इस फ़िल्म में सत्येंद्र की झलक अखिलेश आनंद के किरदार में मिलती हैं, जिसके पिता द्वारका आनंद बेटे की मौत के बाद व्यवस्था से लड़ने निकलते हैं तो दो साल पहले के अण्णा हज़ारे के आमरण अनशन में पहुंच जाते हैं। दो अलग-अलग घटनाओं को एक कहानी में पिरोना यक़ीनन पटकथाकार अंजुम राजबअली की क़ामयाबी कही जाएगी, लेकिन सवाल यह है कि दर्शक के पास नया क्या है देखने, जानने या समझने-बूझने के लिए?
      कुल 153 मिनट तक दर्शक परदे पर चलते कथानक से जुड़ा रहता है, व्यवस्था के खिलाफ़ अपने भीतर गुस्सा उबालता महसूस करता है। चूंकि उसको आंदोलित करने के लिए पुराने सत्य ही उसके सामने हैं, तो उन्हें वह अपने साथ सिनेमाहॉल से बाहर नहीं लेकर आ पाता। दर्शक का फ़िल्मकार से यह सवाल हो सकता है कि जब फ़िल्म किसी मुद्दे को लेकर बनाई गई है तो फ़िर उसमें हिंदी सिनेमा का चिर-परिचित प्रेम-मसाला डालकर तथा फ़िल्म के अंत में अति-नाटकीयता दिखाकर कहानी की शुद्धता के साथ समझौता करने की ज़रूरत कहां आन पड़ी? उसका सवाल यह भी हो सकता है कि अगर मध्यांतर से पहले मानव तथा यास्मीन के बीच इश्क़ होने और मध्यांतर के बाद यास्मीन के जज़्बाती होकर शिकायत करने वाले हिस्से फ़िल्म में न भी होते तो क्या फ़र्क पड़ जाता? ऐसा न होता तो बेहद लंबी फ़िल्म की अवधि ही कम होती और यह अपनी शुद्धता को भी बरकरार रख पाती।
      देखा जाए तो यह फ़िल्म भ्रष्ट व्यवस्था, स्वार्थी राजनेताओं तथा लचर बाबूगीरी में उलझे देश तथा उसके आम जन की हताशा का बेहतरीन चित्रण ज़रूर है, लेकिन कुछ नया देने में नाकाम रहने के कारण दर्शक की रुचि को जगाए नहीं रख पाती है। जन-सरोकार के मुद्दों पर बनी फ़िल्मों की ख़ासियत यही रहती है कि वे लंबे समय तक साथ रहती हैं। लेकिन सत्याग्रह के साथ ऐसा नहीं है। इसकी बड़ी ख़ूबी इसके कलाकारों का अभिनय रहा है। अमिताभ बच्चन के मामले में बेहतरीन से कम देने की गुंजायश कभी नहीं रहती। यहां भी वे द्वारका बाबू की भूमिका में प्राण फूंक गए हैं। भ्रष्ट नेता बलराम के किरदार को मनोज बाजपेयी ने परदे पर शानदार ढंग से साकार किया है। यह एक ऐसा किरदार है जिसे संवाद लेखक अपने दम पर अलग आयाम दे गया है। अजय देवगण व करीना कपूर ने मेहनत की है, पर बेहतर करने गुंजायश नज़र आती है। अमृता राव तथा अर्जुन रामपाल के पास ज्यादा कुछ नहीं था करने को। इन दोनों का काम औसत रहा है। सहायक कलाकारों में विपिन शर्मा तथा गिरीश सहदेव छोटी भूमिकाओं में भी मज़बूत असर छोड़ते दिखे हैं।

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