अब हमारी बात करती हैं फिल्में
कंटेंट के मामले में भारतीय सिनेमा का एक अलग चेहरा पिछले कुछ समय
में हमारे सामने आया है। कथानक ज्यादा सच्चे लगने लगे हैं। कहानी अगर काल्पनिक है
तो भी उसके पात्र हमें खुद का प्रतिबिंब लगते हैं। और घटनाएं ऐसी मानो सबकुछ हमारे
आस-पास चल रहा है।
बहुत बार दोस्तों से गप्पबाजी के दौरान आपके मुंह से निकला होगा- ‘क्यों फिल्मी डायलॉग मार रहा है, यार।’ इस तरह टोकने का मतलब यह रहा होगा कि जो बात कही गई है वो कहने भर के लिए
है, असल जिंदगी में उसका होना या उस पर खरा उतरना नामुमकिन
नहीं तो मुश्किल जरूर है। जिस तरह एक फिल्म की कहानी यथार्थ से परे होती है,
उसी तरह उसके संवाद भी नाटकीयता से भरे होते हैं। जज्बातों की बात
हो तो उनमें अतिरेक, कहानी में संयोगों की बात हो तो उनमें
भी अति, दृश्य भी ऐसे कि अतिशयोक्ति अलंकार का सटीक उदाहरण
बनाकर पेश किए जा सकें। यानी, परदे पर जो कुछ भी दिखाया जा
रहा है, वह असलियत के आसपास भी न फटके। तभी तो आपके टोकने पर
अक्सर यही जवाब मिला होगा- ‘नहीं यार, डायलॉग
नहीं मार रहा... कसम से, सच कह रहा हूं।’
शायद कुछ ज्यादा हो गया, है न? यहां किसी फिल्म का जो खाका खींचा जा रहा है, वह सही
नहीं लग रहा होगा आपको। हम्म्म... सही न लगने की वाजिब वजह भी है। असल में सारी
चीजों को आप आज के परिदृश्य में देख रहे हैं, इसलिए यकीनन
भारतीय सिनेमा का ऐसा खाका खींचे जाने पर सहमति जताने में सहज महसूस नहीं कर रहे
होंगे। करेंगे भी कैसे? अब ज्यादातर फिल्में यथार्थ के धरातल
पर जो बन रही हैं... फिल्में जो मनोरंजन करने के साथ-साथ एक आईना लगातार आपके
सामने रखे रहती हैं। ऐसी फिल्में जो सच के करीब हैं, जिनके
सामाजिक सरोकार हैं, और जो सार्थक सिनेमा के विचार को छूकर
निकलती प्रतीत होती हैं। ऐसी फिल्में जिनके संवाद हमारी-आपकी जिंदगी से उठाए जाते
हैं। एक ऐसी भाषा जो किताब से निकलकर नहीं आती, बल्कि जिसे
हम रोजमर्रा की जिंदगी में बोलते हैं... बेलाग, बेलौस भाषा।
यहां तक कि गाली-गलौज की शब्दावली से भी फिल्मकारों को अब गुरेज नहीं।
चलिए, थोड़ा पीछे चलते हैं। ज्यादा नहीं, यही कोई तीस-पैंतीस बरस पीछे। फिलहाल समानांतर सिनेमा यानी कला फिल्मों की
बात न करते हुए व्यावसायिक सिनेमा यानी मसाला फिल्मों की बात करते हैं। याद कीजिए
क्या होती थी फिल्म की कहानी..? कितना अंतर रहता था दो
फिल्मों की पटकथा में..? किरदारों में कितनी भिन्नता होती थी
दो फिल्मों में..? दिमाग पर जोर डालने के बावजूद मुश्किल हो
रहा है न, फिल्मों की अलग-अलग श्रेणी बनाना! कहानी में बदलाव
होता था, सही है। किरदार बदलते थे, यह
भी सही है। लेकिन मूल? हर फिल्म का मूल वही- नायक-नायिका का
प्रेम... नायिका पर खलनायक की बुरी नजर... नायक के हाथों खलनायक का अंत... बुरी
ताकतों पर अच्छाई का भारी पड़ना... नायक और नायिका का मिलना। एक ही कथानक में सारे
मसाले- संयोग, वियोग, त्रासदी, हास्य, प्रेम, विरह, और सुखांत। पूरे परिवार के मनोरंजन के लिए, लो जी,
बन गई एक और फिल्म। संपूर्ण मनोरंजन!
वैसे मसाला फिल्में बन तो पिछली सदी के तीसरे दशक से ही रही हैं जब
भारतीय सिनेमा अपने शैशवकाल से निकलकर किशोरावस्था में आने लगा था, लेकिन यहां हम तीस-पैंतीस साल पहले की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उस
वक्त ऐसी फिल्मों का दौर शबाब पर था। यही वक्त था जब भारत में समानांतर सिनेमा ने
फिर से सांस लेना शुरू किया। वी. शांताराम, ख्वाजा अहमद
अब्बास, बिमल रॉय, चेतन आनंद, गुरुदत्त जैसे फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा में और सत्यजित रे, मृणाल सेन व ऋत्विक घटक ने बंगाली सिनेमा में जो नींव रखी थी, उस पर नए सिरे से काम सत्तर का दशक आधा गुजर जाने के बाद शुरू हुआ। हिंदी
दर्शकों ने समानांतर सिनेमा का स्वाद फिर से तब चखा जब श्याम बेनेगल, गुलजार, सईद मिर्जा, महेश भट्ट
व गोविंद निहलानी जैसे दिग्गजों ने एक-के-बाद-एक फिल्में उन्हें परोसीं। इसी
श्रेणी में आगे सुधीर मिश्रा, मणि कौल, केतन मेहता, दीपा मेहता, नागेश
कुकुनूर जैसे नाम भी जुड़ते गए। मलयालम में अडूर गोपालकृष्णन व शाजी एन. करुण,
कन्नड़ में गिरीश कारनाड व बी.वी. कारंत, तो
तमिल सिनेमा में कमल हासन व मणिरत्नम ने समानांतर सिनेमा को नए आयाम दिए। लीक से
हटकर फिल्में बनाई जाने लगीं। ऐसी फिल्में, जो हमारे आसपास
का सच थीं। लेकिन कितनी थी ऐसी फिल्मों की संख्या? सदमा,
मृगया, अंकुर, अर्थ,
सारांश, डैडी, हजारों
ख्वाहिशें ऐसी... सूची ज्यादा लंबी नहीं खिंच पाएगी। ये फिल्में एक खास दर्शक वर्ग
के लिए थीं... एक ऐसा दर्शक जो प्रबुद्ध है, सोचता-विचारता
है। ऐसी फिल्मों को आलोचकों की वाहवाही मिली, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर इन्हें सराहा भी गया, लेकिन व्यावसायिक दृष्टि से ये
फिल्में कितनी सफल थीं, यह आपको बताए जाने की जरूरत नहीं है।
सच्चाई का तड़का, मनोरंजन की भाजी
आज के सिनेमा उद्योग में सफलता की यह नई रेसिपी है... और कमोबेश
वर्तमान भारतीय सिनेमा का सच भी। अगर आपसे कहा जाए कि आज की भारतीय फिल्मों को कला
या मसाला किसी एक श्रेणी में रख दीजिए, तो आप यकीनन मुश्किल
में पड़ जाएंगे। पिछले बीस-पच्चीस बरसों में परिदृश्य लगातार बदला है, दस-बारह साल में तो कुछ ज्यादा ही तेजी से। मनोरंजन और यथार्थ दोनों
पास-पास आने लगे। एक तरफ मनोरंजन ने कपोल-कल्पनाओं से नाता तोड़ा, तो दूसरी तरफ यथार्थ ने गंभीरता का लबादा उतार फेंका। दोनों गले मिले और
नतीजा आपके सामने है।
अब जरा लंबी सांस लें और पुरानी फिल्मों के नायक को याद करें। एक
मुस्कराहट तैर गई न आपके चेहरे पर! बिल्कुल आदर्श पात्र होता था वो... पढ़ाई में
अव्वल, आज्ञाकारी, सर्वगुण संपन्न,
थोड़ा-सा शरारती भी, कॉलेज की हर लड़की उसकी
दीवानी। हर मां-बाप चाहें कि उनका बेटा भी वैसा हो। हर युवा चाहे कि वह उस नायक
जैसा बन सके। लेकिन ऐसा मुमकिन है? कतई नहीं...। तो यह कि हम
केवल कल्पना कर सकते हैं ऐसे पात्र की, या फिर उस जैसा बनने
का सपना देख सकते हैं, लेकिन उस किरदार को खुद में या अपने
आस-पास नहीं तलाश पाते। अब याद करें ‘3-इडियट्स’ के मुख्य पात्रों को। हमें वो किरदार अपने जैसे नजर आते हैं, अपने दोस्तों-यारों में दिखाई देते हैं। उनकी आकांक्षाएं, खामियां, छटपटाहटें हमें खुद में नजर आती हैं। परदे
पर जो किरदार है, हम उसमें खुद को देखने लगे हैं। लगता है
पूरी कहानी हमारी ही है।
अब थोड़ा आगे आते हैं। अस्सी के दशक की शुरुआती मसाला फिल्मों को
याद कीजिए। एक अकेला नायक बुरे लोगों और बुराई पर भारी है। वो जो बीड़ा उठाता है, उसे पूरा करके ही दम लेता है। आधी फिल्म में वो नाचता-कूदता है, और आधी फिल्म में उस जैसा महानायक कोई नहीं। उसे जब परदे पर लड़ते देखते
हैं तो हमारे अंदर का सुपरमैन जागता है। उत्तेजना में हम कुर्सी के सिरे तक पहुंच
जाते हैं, मुट्ठियां भिंच जाती हैं, रगों
में एड्रीनेलिन का स्तर बढ़ जाता है। मन ही मन हम प्रण लेते हैं कि इस जैसा बनकर
दिखाएंगे। लेकिन जोश की यह आंधी सिनेमा हॉल के भीतर तक ही चलती है। बाहर असलियत ही
हवा लगते ही सारा जोश हवा हो जाता है। अब इसके बरक्स ‘रंग दे
बसंती’ के उन किरदारों को याद कीजिए जो एक असंभव से मकसद को
लेकर कदम बढ़ाते हैं और अंत में मारे जाते हैं। भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ उनकी
आवाज को कुचल दिया जाता है। यह हमारी सच्चाई है। रोज ऐसा होता देखते हैं हम अपने
आस-पास। फिल्म देखकर लगता है जैसे हमारी आवाज को खामोश कर दिया गया है। आज की
फिल्म का कथानक गल्प कम है, सच के ज्यादा करीब है।
बेटा है, प्यार है, पर अंदाज अलग है
जज्बातों के मामले में भी आज की फिल्में न केवल संयत हुई हैं बल्कि
जज्बातों को ज्यादा व्यावहारिक तरीके से पेश कर रही हैं। पहले की बानगी देखिए।
बेटे के लिए मां कुछ भी करने को तैयार है। उसका बेटा उसके लिए दुनिया में सबसे
दुलारा है जिसके खिलाफ वो कुछ नहीं सुनना चाहती। उसके लिए वो जान भी देती है, खलनायक की चलाई गोली अपने सीने पर झेलती है। बेटे की सलामती की दुआ मांगती
है। वहीं, किसी फिल्म में जब खलनायक को पता चलता है कि वह
जिसके खिलाफ मुहिम छेड़े हुए है वो उसका अपना खून है तो उसका कायांतरण हो जाता है।
वो अब बेहतरीन इनसान है, उसकी बुराई मर चुकी है, बेटे के लिए उसकी जान हाजिर है। इसी तरह भाई भी अपने बिछड़े हुए भाई का
पता चलने पर उसके लिए जान देने को तैयार हो जाता है।
लेकिन जिंदगी का सच यही नहीं है, वो इसके उलट
भी है। अब फिल्में सच के दूसरे पहलू को भी दिखा रही हैं। फिल्म ‘वास्तव’ में जब मां से उसका बिगड़ा हुआ बेटा मौत
मांगता है तो वह उसे खुद गोली मारती है। ‘कॉरपोरेट’ में बागी बेटे की वजह से बिजनेस पर असर पड़ने लगता है तो बाप उसे रास्ते
से हटवा देता है। अपने फायदे के लिए किए गए रिश्तों के कत्ल का गवाह तो इतिहास भी
है। हमारे पास अगर बाबर की मिसाल है जो बेटे के लिए अपनी जान देता है, तो औरंगजेब भी है जो गद्दी पाने के लिए अपने तीनों भाइयों में से किसी की
जान नहीं बख्शता। कुल मिलाकर, सच केवल मीठा नहीं है। रिश्तों
के डरावने चेहरे को भी फिल्में अब दिखा रही हैं। और कथानक में आया यह बदलाव ज्यादा
पुराना नहीं है।
प्यार में धोखा, पर माफी नहीं
परदे पर कोई रिश्ता अगर बनने से पहले ही बिगड़ रहा है तो पुराने
वक्त की तरह अब उसकी वजह गरीबी नहीं है, या दो परिवारों की
आपसी लड़ाई नहीं है, या दोनों परिवारों के मुखियाओं का दंभ
आड़े नहीं आ रहा है। अब अलग ढर्रा है, तर्कसंगत कारण हैं,
और बड़ी बात यह कि कारणों का दोहराव नहीं है। हम जो कुछ पढ़-सुन रहे
हैं, हमारे आस-पास जो घटित हो रहा है, उसी
को हम परदे पर भी देख रहे हैं। किसी फिल्म में प्यार के नाम पर टाइमपास है,
तो कहीं सेक्स के लिए प्यार का खेल चल रहा है। कहीं जीवनसाथी के
विवाहेतर संबंध हैं, तो कहीं समलैंगिक संबंध आपसी तकरार की
वजह हैं। और तो और, तथाकथित बड़े लोगों में चलने वाले ‘स्पाउस स्वैपिंग’ के खेल को भी हमारी फिल्में अब
कहानी का आधार बना रही हैं। ‘मिक्स्ड डबल्स’ में ऐसे ही जोड़े की कहानी है जो जान-पहचान के एक युगल के इस शगुल को
देखकर खुद भी यह एडवेंचर करने को राजी हो जाता है।
आज के सिनेमा ने कथानक में बड़ा बदलाव यह भी देखा है कि अब साथी की
गलतियों को माफ नहीं किया जाता। ‘लक बाय चांस’ में धोखेबाज बॉयफ्रेंड के वापस आने पर नायिका उसे माफ करके गले नहीं लगाती
बल्कि बाहर का रास्ता दिखा देती है। वहीं, ‘मर्डर’ जैसी फिल्मों में प्यार के नाटक में फंसाकर मतलब निकालने वाले प्रेमी से
नायिका बदला लेती है। लेकिन यह सब कल्पना नहीं है। हमारे समाज का सच है यह। फिल्म
देखते वक्त दर्शक खुद को उस कथानक का हिस्सा महसूस करने लगा है- एक सक्रिय किरदार
के रूप में नहीं तो समाज के उस हिस्से के रूप में जिसके आस-पास यह सब चल रहा है।
बच्चों के सपने और युवाओं की बात
बच्चों के लिए बनी कोई पुरानी फिल्म याद आ रही है? हां.. सफेद हाथी, खिलते सुमन। बहुत ज्यादा नाम तो
याद नहीं आ रहे होंगे। और जो याद भी आ रहे हैं, वो बच्चों की
फिल्में इसलिए थीं कि उनमें मुख्य भूमिकाएं बच्चों की थीं। बेहद कम बजट में बनी इन
फिल्मों की कहानी या तो परिवार में बच्चे पर हो रहे अत्याचार के आस-पास घूमती थी,
या फिर उसके किसी कारनामे को बयां करती थी। लेकिन, पिछले एक दशक पर नजर डालें तो बाल फिल्मों का जो कायांतरण हुआ है वो साफ
समझ आ जाता है। मकड़ी, तारे जमीं पर, खरगोश,
आई एम कलाम, उड़ान, स्टेनली
का डब्बा... ये सब बच्चों की फिल्में इसलिए नहीं हैं कि इनमें केंद्रीय पात्र
बच्चे हैं, बल्कि इसलिए हैं क्योंकि इनमें बच्चों की बात है,
उनकी उम्मीदों, आकांक्षाओं, सोच और उनके सपनों की बात है। संचार क्रांति के इस दौर में बच्चे अब पहले
के बच्चों की तरह नहीं सोचते। उनकी नई सोच और उम्र से पहले की परिपक्वता अब
फिल्मों में भी दिख रही है। परदे पर जो दिखाया जा रहा है, बच्चे
उसमें खुद को देख पा रहे हैं।
इसी तरह, युवाओं को लेकर भी सिनेमा ने अपना नजरिया बदला है।
याद कीजिए, कुछ बरस पहले तक क्या परोसा जा रहा था युवा
दर्शकों को! कॉलेज की तकरार, छेड़छाड़, प्यार-मोहब्बत के किस्से, इश्क की राह में कांटे और
गीतों पर नाच-गाना... यहां तक कि सफल फिल्म ‘कयामत से कयामत
तक’ भी इसी फॉर्मूले पर बनी थी। सिर्फ 25 साल पहले की बात है यह। उस दौर की कितनी ही फिल्में इस तरह की थीं। फर्क
इतना था इनकी ट्रीटमेंट में नयापन था। ताजा चेहरे थे, दर्शकों
ने उन्हें सिर-आंखों पर बैठाया। लेकिन कितनी देर चलता यह भी। देख लीजिए... अब पूरा
दृश्य बदल गया है। जिंदगी में इश्क लड़ाना ही सबकुछ नहीं, छटपटाहटें
व तनाव भी जिंदगी का बड़ा हिस्सा हैं। युवाओं के मन में क्या चल रहा है, यह भी परदे पर परोसा जाना लगा है। इकबाल, गुलाल,
शैतान, देव डी, माचिस,
लव का पंचनामा.... और कितनी ही अन्य फिल्में। कहीं छात्र राजनीति की
बात है, तो कहीं मन के भीतर कुंडली मारे बैठे डर की बात है।
कहीं प्यार को आज की सोच के हिसाब से पेश किया जा रहा है, तो
कहीं युवा मन के भटकाव को चित्रण है। यानी, अब हर वो पहलू
फिल्मी पटकथा का हिस्सा बन रहा है जो पहले अनछुआ रह जाता था।
पुरस्कारों की श्रेणियां बोलती हैं
भारतीय सिनेमा ने जो बड़ा बदलाव देखा है, उसकी चुगली फिल्म पुरस्कार साफ करते नजर आते हैं। कितने ही फिल्म अवॉर्ड
हैं इन दिनों, कहीं सर्वश्रेष्ठ खलनायक की श्रेणी नजर आती है
आपको? पहले होती थी, बराबर होती थी।
वजह तलाशेंगे तो पूरी बात समझ में आ जाएगी। पहले फिल्म में दो ध्रुव होते थे- एक
नायक, एक खलनायक। यानी, एक चरित्र
जिसका चाल-चलन अच्छा है, और एक चरित्र जिसके कारनामे गलत
हैं। लेकिन अब? अब जरूरी नहीं कि केंद्रीय पात्र अच्छे
चरित्र की भूमिका निभा रहा हो। वो बुरा भी हो सकता है, यानी
खलनायक हो सकता है। आखिर है तो वो इनसानी किरदार ही? कहीं पर
वह किसी को अपने जैसा लगेगा, तो कहीं किसी दूसरे को। वह आज
की दुनिया का किरदार है। इसी लिए पुरस्कारों की कुछ पुरानी श्रेणियां खत्म हो गई
हैं। अब श्रेणियां हैं- मुख्य भूमिका में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और सहायक भूमिका में
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता।
विदेश में भी बोल रही तूती
बात पुरस्कारों की चली है तो बात करते हैं दुनियाभर में भारतीय
सिनेमा की पुख्ता होती पहचान की। सत्यजित रे को स्पेशल ऑस्कर मिलने के अलावा कब
लिया गया था भारतीय सिनेमा का अंतरराष्ट्रीय मंच पर नाम! कह सकते हैं कि यदा-कदा
ही। लेकिन अब भारतीय सिनेमा का नाम हर छोटे-बड़े मंच पर गूंज रहा है। ऑस्कर
अवॉर्ड्स में नामांकन से लेकर बड़े से बड़े फिल्म समारोह देख लीजिए... हर जगह धूम
है। दिशा बदली है तो दशा भी बदली है। पहले रूस व जापान में ही पसंद किया जाता था
हमारी फिल्मों को, अब पूरी दुनिया इनकी मुरीद है। विदेशी कलाकार
इनमें काम करने को लालायित हैं। कितने ही विदेशी नाम हम अपने रजत पट पर देख चुके
हैं पिछले कुछ सालों में। टोरोंटो में हाल में हुए आईफा अवॉर्ड्स में ऑस्कर विजेता
हिलरी स्वांक और क्यूबा गुडिंग जूनियर भी थे। दोनों ने जोर देकर कहा कि वो भारतीय
फिल्मों का हिस्सा बनने के इच्छुक हैं, बस बुलावे के इंतजार
में हैं। यह स्थिति पहले कहां थी!
सौ बातों की एक बात
भारतीय फिल्मों में आए इस बदलाव के बारे में सौ बातों की एक बात यह
है कि अब एक कहानी को सौ हिस्सों में बांटकर पेश किया जा रहा है। जिंदगी के
छोटे-छोटे अंशों पर फिल्में बन रही हैं। वो जमाना गया जब कहानी की शुरुआत होती थी
और उसका एक सटीक अंत होता था.. ठीक किसी कथा की तरह। भारतीय सिनेमा में जो बड़ा
बदलाव नजर आया है, वो यह कि अब ज्यादा कोशिश इस बात की हो रही है कि
सच्चाई के कितना करीब जाया जाए। कहानी से ज्यादा अहम उसकी पेशकश है, उसे परदे पर कहने का अंदाज है। फिल्म अचानक से खत्म हो जाएगी, चलेगा। लेकिन जब तक फिल्म चल रही है, तब तक उसमें
नकलीपन नहीं हो। आज की फिल्मों की स्टोरीलाइन में आम जिंदगी के छोटे हिस्से हैं,
कहीं मुद्दे हैं, कहीं शरारतें हैं, तो कहीं चुलबुलापन। ‘चलो दिल्ली’ की कहानी पहले दिन शुरू होती है और अगले दिन खत्म हो जाती है। इसी तरह,
‘द किलर’ व ‘नॉकआउट’
के कथानक हैं, जिनमें कुछ ही घंटों का खेल
दिखाया गया है। इसी तरह ‘संडे’ में
कहानी तीन दिन की ही है। सच के करीब जाने की कोशिश का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा
कि अब असल घटनाओं पर फिल्में बन रही हैं। 1971 के युद्ध की
एक घटना पर ‘बॉर्डर’ और जेसिका
हत्याकांड पर ‘नो वन किल्ड जेसिका’ आ
चुकी हैं। हाल ही में नीरज ग्रोवर हत्याकांड पर ‘नॉट ए लव
स्टोरी’ सिनेमाघरों के परदे पर आई है।
ऐसा भी नहीं है कि सिनेमा में यथार्थवाद का ही भोंपू बजाया जा रहा
है और कल्पनाशीलता कहीं है ही नहीं। जरूर है, लेकिन दर्शक तक यह
बात पहुंच रही है कि वह क्या देखने जा रहा है। कॉमेडी फिल्म है, तो फिर वह हल्के-फुल्के हास्य के लिए ही है। ‘संकट सिटी’,
‘मालामाल वीकली’, ‘हेराफेरी’ जैसी फिल्मों का दर्शक कुछ अलग उम्मीद बांधकर नहीं जाता। उसे मालूम है कि
वह ढाई-तीन घंटे तक खालिस मनोरंजन के लिए जा रहा है। ‘रोबोट’
जैसा रोमांटिक साइंस फिक्शन है तो तय है कि बहुत कुछ काल्पनिक होगा
फिल्म में। सामाजिक सरोकार की अलग फिल्में हैं, रोमांटिक
फिल्में अलग हैं। पीरियड फिल्म है तो फिर वही है। यानी, सारे
मसाले एक ही फिल्म में नहीं डाले जा रहे। अब जॉनर के हिसाब से फिल्में लिखी जा रही
हैं। इसी वजह से फिल्मों की विषयवस्तु में विविधता आई है। कथानक बेशक लेखक के
दिमाग की उपज है, लेकिन उसके दृश्य व हिस्से हमारी जिंदगी से
उठाए गए लगते हैं। यही आज की फिल्मों को सच्चाई के करीब ले जाता है। और विडंबना
देखिए कि यही बात आज के भारतीय सिनेमा को पहले के भारतीय सिनेमा से अलग भी करती
है।
यह लेख 'अहा ज़िंदगी'
के वार्षिक विशेषांक में प्रकाशित हुआ है।
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