अब हमारी बात करती हैं फिल्में
कंटेंट के मामले में भारतीय सिनेमा का एक अलग चेहरा पिछले कुछ समय में हमारे सामने आया है। कथानक ज्यादा सच्चे लगने लगे हैं। कहानी अगर काल्पनिक है तो भी उसके पात्र हमें खुद का प्रतिबिंब लगते हैं। और घटनाएं ऐसी मानो सबकुछ हमारे आस-पास चल रहा है। बहुत बार दोस्तों से गप्पबाजी के दौरान आपके मुंह से निकला होगा- ‘ क्यों फिल्मी डायलॉग मार रहा है , यार। ’ इस तरह टोकने का मतलब यह रहा होगा कि जो बात कही गई है वो कहने भर के लिए है , असल जिंदगी में उसका होना या उस पर खरा उतरना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है। जिस तरह एक फिल्म की कहानी यथार्थ से परे होती है , उसी तरह उसके संवाद भी नाटकीयता से भरे होते हैं। जज्बातों की बात हो तो उनमें अतिरेक , कहानी में संयोगों की बात हो तो उनमें भी अति , दृश्य भी ऐसे कि अतिशयोक्ति अलंकार का सटीक उदाहरण बनाकर पेश किए जा सकें। यानी , परदे पर जो कुछ भी दिखाया जा रहा है , वह असलियत के आसपास भी न फटके। तभी तो आपके टोकने पर अक्सर यही जवाब मिला होगा- ‘ नहीं यार , डायलॉग नहीं मार रहा... कसम से , सच कह रहा हूं। ’ शायद कुछ ज्यादा हो गया...