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Showing posts from June, 2013

मुस्कराते रहिए ‘घनचक्कर’ के चक्कर में फंसकर

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यथा नाम तथा गुण ! ‘ घनचक्कर ’ पर यह बात सटीक बैठती है। यह फिल्म दर्शक को अंतिम दृश्य तक बेतरह घनचक्कर बनाए रखती है और दर्शक मौके-दर-मौके मनोरंजन की पुड़िया गटकता जाता है। अगर आप सिनेमाहॉल में कदम यह सोच कर रख रहे हैं कि इमरान हाशमी अभिनीत पात्र ही घनचक्कर है तो ‘ भूल ’ जाइए। असल में इसके सारे ही किरदार घनचक्कर हैं और फिल्म खत्म होने पर आपको समझ आता है कि इन पात्रों के साथ आप भी पूरा वक्त घनचक्कर बने हुए थे। फिर आप क्या करते हैं ? मुस्कुराते हैं और अपने आस-पास देखते हैं। अरे ! ये सब भी तो मुस्कराए जा रहे हैं।       राजकुमार गुप्ता निर्देशित ‘ घनचक्कर ’ की कहानी इसकी आत्मा है तो अभिनय इसकी प्राणवायु। कहानी को इस तरह से बुना गया है कि दर्शक पूरा वक्त अंदाजा लगाता रह जाता है। ‘ नोटों से भरा बैग आखिर है कहां... ’ , इस सवाल पर अनुमान पल-पल बदलते हैं। अभी संजय आत्रे (इमरान हाशमी) झूठ बोलता लग रहा है तो अभी नीतू भाटिया ( विद्या बालन ) झूठी लगती है। नीतू तर्क रखती है तो संदेह का कुतुबनुमा फिर संजय की ओर मुड़ जाता है। इस बीच एक पारिवारिक मित्र और ए...

संवेदनशीलता से भरपूर है ‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’

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किसी फ़िल्म के टाइटल में ‘ मर्डर ’ शब्द नज़र आते ही इसे आप केवल इसलिए देखने जाते हैं कि कहानी में सस्पेंस होगा और ढाई घंटे तक परदे पर एक क्राइम थ्रिलर देखने को मिलेगा, तो यकीनन ‘ अंकुर अरोड़ा मर्डर केस ’ आपकी फ़िल्म नहीं है। हां, अगर आप संजीदा दर्शक हैं ; एक अभिभावक हैं ; अपनी संतान को ज़रा-सी चोट लगते ही आपका दिल दहल जाता है ; जानते हैं कि क़त्ल की परिभाषा में सिर्फ वो अपराध नहीं आते जिनसे अखबार आए दिन रंगे रहते हैं ; और फ़िल्म में हर पल किसी-न-किसी पात्र को अपने भीतर महसूस करके थोड़ा हिल जाना चाहते हैं, तो फिर आप यह फिल्म देखने में देर नहीं करना चाहेंगे।       किस तरह डॉक्टरों की लापरवाही मामूली-से बीमार बच्चे की जान ले सकती है और कैसे यह लापरवाही एक क़त्ल के बराबर है, यही इस फ़िल्म का कहानी है। ...लेकिन कोई फ़िल्म केवल कहानी नहीं होती। मायने इस बात के रहते हैं कि इसकी बुनावट कैसी है, कथानक में नाटकीयता कितनी है, फ़िल्म की रफ़्तार क्या है और शुरू से अंत तक के सफ़र पर यह किस तरह के मोड़ तय करती है। अगर इन सब पहलुओं को ध्यान में रखकर बात करें तो सुहेल...

वाकई दमदार निकले हवा में उड़ते ‘फ़ुकरे’

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वक़्त की क़िल्लत हो मगर मंज़िल अभी दूर हो, तो ? यकीनन, या तो पैर एक्सीलेटर पर दबता जाएगा या फिर आप कोई शॉर्टकट तलाशेंगे...बगैर इस बात की परवाह किए कि दिक़्क़तें कितनी आने वाली हैं। ...और अगर इस एक वाक्य की बात को लेकर एक कहानी बुननी हो , तो ? तब तो तय है कि सोचना पड़ेगा। एक्सेल एंटरटेनमेंट की नई फ़िल्म ‘ फ़ुकरे ’ उसी सोच का नतीजा है, लेकिन यह ज़रूर है कि यह सोच रास्ते में बेशक थोड़े-बहुत हिचकोले खाती रही हो, मगर अपनी मंज़िल पर सही-सलामत जा पहुंचती है।       युवा निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा की ‘ फ़ुकरे ’ शुरू से लेकर अंत तक मनोरंजन का गुलदस्ता पेश करती है और बीच-बीच में ठहाके लगाने को मजबूर करती जाती है। शुरुआत में लगता है कि परदे पर एक ठोस कहानी के बजाय हमारी-आपकी ज़िंदगी के छोटे-छोटे किस्सों का ताना-बाना भर पेश होने वाला है...पर जैसे ही अलग-अलग व्यक्तित्व वाले चार युवाओं का रास्ता एक-दूसरे को काटता निकलता है तो एक कहानी शुरू होती है जो कुछ हंसते-मुस्कराते लम्हों से गुज़रती हुई दर्शक को आगे लेती जाती है।       अगर किरदारों के ल...

झील पर तैरते गांव में कुछ घंटे

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दक्षिण-पूर्व एशिया के देश कंबोडिया में टोनले सैप नामक जिस झील के किनारे सीएम रीप शहर बसा है , वो दक्षिण-पूर्व एशिया की ताज़े पानी की सबसे बड़ी झील है। शहर से 12 किलोमीटर दूर मौजूद यह झील अपने तैरते गांवों की वजह से विदेशी सैलानियों के लिए एक बड़ा आकर्षण है। अंकोर वाट मंदिरों के देश कंबोडिया में कदम रखे मुझे दो दिन गए थे और इस दौरान मैं राजधानी नोम पेन के तकरीबन सभी ख़ास हिस्सों से जान-पहचान बना चुका था। अंकोर वाट के लिए मुझे सीएम रीप जाना था , जो नोम पेन के उत्तर-पश्चिम में छह घंटे की दूरी पर है। जिस कंबोडिया को मैंने तस्वीरों में देखा था उसकी थोड़ी-बहुत झलक तो नोम पेन के बाहरी हिस्सों में नज़र आई , लेकिन वो छवि पूरी तरह से साकार नहीं हुई जिसमें पानी से भरे धान के खेत थे , खेतों में तिनकों से बना चौड़ा टोप पहने मेहनत करते किसान थे और खंभों पर टिके लकड़ी के मकान थे जिनमें सीढ़ी के ज़रिये दाखिल होना पड़ता है।     तीसरे दिन सीएम रीप के लिए सुबह-सवेरे बस पकड़ी तो सोचा नहीं था कि वहां जाकर मैं हज़ार साल पुराने हिंदू मंदिरों के अलावा कुछ ऐसा भी देखूंगा जिसके बारे में किसी ट...