वाकई दमदार निकले हवा में उड़ते ‘फ़ुकरे’

वक़्त की क़िल्लत हो मगर मंज़िल अभी दूर हो, तो? यकीनन, या तो पैर एक्सीलेटर पर दबता जाएगा या फिर आप कोई शॉर्टकट तलाशेंगे...बगैर इस बात की परवाह किए कि दिक़्क़तें कितनी आने वाली हैं। ...और अगर इस एक वाक्य की बात को लेकर एक कहानी बुननी हो, तो? तब तो तय है कि सोचना पड़ेगा। एक्सेल एंटरटेनमेंट की नई फ़िल्म फ़ुकरे उसी सोच का नतीजा है, लेकिन यह ज़रूर है कि यह सोच रास्ते में बेशक थोड़े-बहुत हिचकोले खाती रही हो, मगर अपनी मंज़िल पर सही-सलामत जा पहुंचती है।
      युवा निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा की फ़ुकरेशुरू से लेकर अंत तक मनोरंजन का गुलदस्ता पेश करती है और बीच-बीच में ठहाके लगाने को मजबूर करती जाती है। शुरुआत में लगता है कि परदे पर एक ठोस कहानी के बजाय हमारी-आपकी ज़िंदगी के छोटे-छोटे किस्सों का ताना-बाना भर पेश होने वाला है...पर जैसे ही अलग-अलग व्यक्तित्व वाले चार युवाओं का रास्ता एक-दूसरे को काटता निकलता है तो एक कहानी शुरू होती है जो कुछ हंसते-मुस्कराते लम्हों से गुज़रती हुई दर्शक को आगे लेती जाती है।
      अगर किरदारों के लिए कलाकारों के चयन की बात की जाए तो यहां फ़िल्म बाज़ी मार ले जाती है। फ़िल्म के चारों किरदार जुगाड़ू ज़्यादा हैं और इनमें कोई अगर असल में फ़ुकरा है तो वह चूचा है जो हर हालात में हवा में ही रहता है। चूचा की भूमिका को पहली बार परदे पर आ रहे वरुण शर्मा ने बख़ूबी निभाया है। अली फ़ज़ल फिर से गिटार के साथ गुनगुना रहे हैं और ज़फर के थोड़े गंभीर क़िस्म के चरित्र में असरदार रहे हैं। इससे पहले वह ‘3 इडियट्स में जॉय लोबो बने थे और वहां भी गिटार पर गुनगुनाते नजर आए थे। पुलिकत सम्राट और मनजोत भी अपने रंग में हैं। भोली पंजाबन की भूमिका में ऋचा चड्ढा ने बता दिया है कि अभिनय के उनके तरकश में तीरों की कमी नहीं है। वहीं, विशाखा सिंह ने अपने पात्र के मुताबिक बेहद सधी हुई एवं गरिमामय अदाकारी पेश की है। पंडित के किरदार में पंकज त्रिपाठी की मौजूदगी को भी दर्शक भूल नहीं पाएंगे।
      ‘फ़ुकरे की ख़ासियत है कि कहानी के मुश्किल मोड़ों पर भी यह मुस्कराहट देने में क़ामयाब रहती है। अक्सर उत्तर भारतीय माहौल को दर्शाती फिल्मों में चुटकलों के ज़रिये हंसाने की कोशिश की जाती रही है, लेकिनफ़ुकरे इस श्रेणी से बाहर निकलकर वाकई गुदगुदा जाती है। बीच-बीच में गीत-संगीत का तड़का कहानी के बहाव को आगे ही ले जाता है। फ़िल्म के चारों युवा किरदार आम ज़िंदगी के किरदार हैं जो सिनेमाई परदे के पात्र कतई नहीं लगते। यहीं पर दर्शक खुद को उन किरदारों से जोड़ने में कामयाब रहेगा। अगर आप बेहद गंभीर क़िस्म के दर्शक नहीं हैं और तनाव के बीच से कुछ हल्के-फ़ुल्के पल चुराने से आपको गुरेज़ नहीं है तो फ़ुकरे आपकी फिल्म है, जो धीमी रफ़्तार पर शुरू होकर गति पकड़ती है और फिर उसी रफ़्तार से चलती हुई अंजाम तक पहुंच जाती है।

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