दो नवगीत
ब्लॉग शुरू किया नहीं कि दोस्त लोग इस पर रचनाएं डालने के लिए कहने लगे। डायरी पर पड़ी धूल हटाकर पन्ने पलटे तो कुछ साल पहले लिखे नवगीत सामने आ गए। उनमें से दो नवगीत यहां लिख रहा हूं। दोनों रचनाएं 'भास्कर' में अलग-अलग वक़्त पर छप चुकी हैं...
क्या करूं मैं बात
आज फिर
उतरी गगन से
पूर्णिमा की रात।
उतरी गगन से
पूर्णिमा की रात।
कुछ दबी-सी
कामनाएं
ले रहीं अंगड़ाइयां
बज उठी हैं
क्लांत मन में
सैकड़ों शहनाइयां
रही मन की
अनकही पर
झनझनाया गात।
एक पल मैं
सोचती हूं
दूसरे पल मुस्कराऊं
और जो मैं
हंस पड़ूं तो
देर तक हंसती ही जाऊं
कोई न जाने
हुआ क्या
खा गए सब मात।
चांदनी
मेरी हंसी का
राज़ मुझसे पूछती
चुप रहूं तो
यह सहेली
बेवजह ही रूठती
नयन सबकुछ
कह चुके अब
क्या करूं मैं बात।
आज फिर
उतरी गगन से
पूर्णिमा की रात।।
रो दिया है फूल
उड़ चला
दीवाना भंवरा
रो दिया है फूल।
दीवाना भंवरा
रो दिया है फूल।
सांझ के
पहलू में आकर
घुल रहा है दिन
चल पड़े
चरवाहे वापस
रेवड़ों को गिन
हो गया
आकाश धूमिल
उड़ रही है धूल।
छान मारा
चप्पा-चप्पा
हुई बदहाली
लौटते अब
घोंसलों को
चोंच है खाली
ये विहग भी
क्या करें जब
दैव हो प्रतिकूल।
दूर सबसे
बावड़ी पे
मिल रहे दो दिल
नीर में
दोनों की छाया
कर रही झिलमिल
मग्न हैं
खुद में ही दोनों
सब गया है भूल।
उड़ चला
दीवाना भंवरा
रो दिया है फूल।।
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मेरी हंसी का
राज़ मुझसे पूछती
चुप रहूं तो
यह सहेली
बेवजह ही रूठती
नयन सबकुछ
कह चुके अब
क्या करूं मैं बात।
आज फिर
उतरी गगन से
पूर्णिमा की रात।।
बहुत ही सुंदर रचना अजय जी बस आप तो अब लिखते जाओ
धन्यवाद अच्छी रचनाओं के लिए
तकरीबन रोज़ नीचे मिलना भी बेमक़सद ही
रहा। और कुछ न सही इस ब्लाग की सूचना देना
ही किसी दिन का मक़सद बनता । बहरहाल , शुक्र ये कि अपनी यायावरी में हमने ही खोज ली ये बेमकसद दुनिया। अच्छा ये भी कि पोस्टों के ढेर से नहीं गुज़रना पड़ रहा है। अभी तो हथेलियों में समेट कर इन्हें एकबारगी पढ़ लिया गया है।
अच्छी कविताएं, अच्छी बानगी...
जै जै
Jitendra Srivastava
9818913798