तुम्हारे लिए - 2

1)
मन की भी आँखें होती हैं
देख लेती हैं दूर तक
पहाड़ों को लाँघ कर
कोहरे की चादर के उस पार
समंदर भी नहीं रोक पाते
मन की नज़र को

तुमसे मिला पहली बार
लगा, जानता हूँ तुम्हें सदियों से
हज़ारों बार देखा तुम्हें

झाँकता था जब अपने भीतर
तुमसे होती थी मुलाक़ात
मन की आँखों ने
सहेज कर रखा था तुम्हें
अपनी पलकों पर

2)
बहुत भटक लिया
बर्फ-सी उजली मगर
ठंडी मुस्कराहटों के शहर में

बहुत बार देखी चहचहाते चेहरों ने
मेरी अनमनी-सी खिलखिलाहट
और समझ लिया कि शायद
बहुत खुश हूँ मैं भी उनकी तरह

एक अरसा बीता
किसी ने नहीं पढ़ा मेरे चेहरे को
नहीं की कोशिश जानने की
कि मेरी आँखें भी हँसती हैं कभी?

इस सारे फ़रेब से निकल कर
किसी के सामने बेपरदा होना है
मुझे अब जी भर के रोना है...

मुझे फिर से तुम्हारे क़रीब होना है

3)
बार-बार कहने पर भी
नहीं कहती थी तुम
कि करती हूँ प्यार तुमसे

जब करता था इसरार इस बात का
तुम तकती थी अपलक
और मुस्करा देती थी, बस!

उस दिन
तुम्हारे बालों में फूल लगाते वक़्त
काँटे से जब छिल गयी थी उंगली मेरी
चाहा था मैंने कि तुम
दुपट्टे का सिरा फाड़कर लपेट दो उस पर

तुमने तब भी नहीं कहा कुछ...

मगर तुम्हारे चेहरे पर
देखी थी मैंने अपनी पीड़ा
उस वक़्त बिना कुछ बोले तुमने
उकेर दिया था प्रेम का महाकाव्य
मेरी आत्मा के पन्नों पर

4)
अवसादों के पतझड़ में अनमना-सा पड़ा था

तुम्हारी गोद में सिर रखा तो
खिल आये हर तरफ़ हरे-हरे पत्ते
और
झरने लगा बसंत मेरे वजूद पर

Comments

dr mrunalinni said…
khamoshi mein bhi prem ko dekhna aur shabdon mein vyakt karna aapko achhi tarah aaya hai is kavita mein..A POEM in honesty..:)
Ajay K. Garg said…
शुक्रिया! उम्मीद है, और भी अच्छा कुछ पढ़ने को मिलेगा मेरी तरफ से..

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