अंकोर काल के गलियारों से गुज़रते हुए

उत्तर-पूर्वी कोने से खींची गई अंकोर वाट मंदिर की तस्वीर। इसी कोने में कभी राजमहल होता था
यह बात मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि उस समय यदि कोई मेरे चेहरे को पढ़ता तो उसे वहां विस्मय, प्रसन्नता और संतुष्टि के मिल-जुले भाव नज़र आते। एक सवाल जो मेरे मन में बरसों से उमड़ रहा था और जिसका जवाब मुझे कहीं नहीं मिल पाया था, वो सवाल अचानक अपने मायने खो बैठा था। सब कुछ कांच की तरह साफ था और सच मेरे सामने मुंह बाये खड़ा था... वो सच यह कि उस धरती पर राम के आदर्शों ने ही नहीं, कभी कृष्ण की नीतियों ने भी पांव धरा था। अंतर बस इतना कि जहां राम आज भी वहां के जनमानस में नायक की पदवी पर विराजमान हैं और आस्था के आधार में समाहित हैं, वहीं कृष्ण की गाथाएं समय की गर्त में विलीन होती गई हैं और केवल मंदिरों में हुई नक्काशी में ही सांस लेती नज़र आती हैं।
मंदिर के पश्चिमी गलियारे के दक्षिणी हिस्से में महाभारत का दृश्य
उस वक़्त मैं खमेर लोगों की धरती कंबोडिया में था और 900 बरस की उम्र पार कर चुके अंकोर वाट मंदिर के बाहरी पश्चिमी गलियारे में खड़ा था। गलियारे के बीचो-बीच एक अलंकृत प्रवेश द्वार था जो गोपुरा कहलाता है। यह गोपुरा दीवार को उत्तरी व दक्षिणी दो हिस्सों में बांट रहा था। मुझे अपने सवाल का जवाब गलियारे के दक्षिणी हिस्से में मिला। दरवाज़े से लेकर दीवार के आखिरी सिरे तक महाभारत के युद्ध की झांकियां उकेरी गई थीं। इनमें कौरवों पर बाण-वर्षा करते अर्जुन और उनके सारथी बने श्रीकृष्ण की झांकियां प्रमुख थीं। महाभारत की कथा भी कभी खमेर लोगों के जीवन में शामिल थी, इसके प्रमाण मुझे अंकोर वाट के अलावा वहां के एक अन्य मंदिर में ही मिल पाए। वहीं, रामायण की झांकियां कमोबेश हर मंदिर में मौजूद हैं। यह रामायण ही है जो खमेर जनजीवन में पानी में चीनी की तरह घुली-मिली है, महाभारत की गाथा को तो खमेर लोग लगभग बिसरा चुके हैं।
अंकोर वाट नगरी के परकोटे की पश्चिमी दीवार और मध्य में बना गोपुरा.. पृष्ठभूमि में मंदिर की मीनारें
हालांकि, मेरे सवाल का जवाब मिल जाना मेरे विस्मित होने की अकेली वजह नहीं था; मेरे लिए ही नहीं यह किसी के लिए भी अकेली वजह नहीं हो सकता। अंकोर आने वाले हर मुसाफ़िर के लिए विस्मय की यह स्थिति तभी शुरू हो जाती है जब वो कंबोडिया के उत्तरी शहर सिएम रीप से आगे सात किलोमीटर उत्तर में मौजूद अंकोर क्षेत्र की ओर बढ़ता है; जब यह सत्य उसके समक्ष उद्घाटित होता है कि जिस अंकोर वाट को वो केवल एक मंदिर के रूप में जानता रहा है, वो असल में कभी भरा-पूरा नगर था और खमेर राजा सूर्यवर्मन द्वितीय का राजधानी क्षेत्र था; जब उसे यह पता चलता है कि अंकोर कई हज़ार हेक्टेयर में बसे क्षेत्र का नाम है जहां कालांतर में खमेर राजाओं की एक-के-बाद-एक छह राजधानियां अस्तित्व में आईं और अंकोर वाट इनमें से एक थी; जब वो यह जानता है कि इस संपूर्ण क्षेत्र में मौजूद भवनों एवं मंदिरों की भव्यता तथा अद्वितीय निर्माणकला को ढंग से देखने-बूझने के लिए एक-दो दिन तो छोड़िए एक सप्ताह भी कम पड़ जाए।
अंकोर काल में बने ता सोम मंदिर का पूर्वी किनारा... ऐसे नज़ारे यहां के कई मंदिरों में हैं
एक दिन पहले कंबोडिया की राजधानी नोम पेन से छह घंटे के बस के सफर के बाद मैं सिएम रीप पहुंचा था। जिस गेस्टहाउस में मैं ठहरने वाला था, उसका नुमायंदा टुक-टुक लेकर बसअड्डे पर मुझे लेने आया था। सिएम रीम में गेस्टहाउस वालों के बीच बिजनेस को लेकर इतनी मारामारी है कि वे ग्राहक को किसी कीमत पर गंवाना नहीं चाहते। कोई बस से पहुंचे या विमान से, उसे लिवाने के लिए निःशुल्क सेवा मुहैया कराने की परंपरा-सी हो गई है। टोनले साप नामक बेहद विशाल झील के किनारे बसा सिएम रीप बहुत बड़ा व आकर्षक शहर नहीं है। अगर कोई सिएम रीप पहुंचता है तो तय है कि वो सिर्फ और सिर्फ अंकोर के आकर्षण में बंधा चला आया है। तो स्वाभाविक था कि जैसे ही मैंने गेस्टहाउस पहुंचकर कमरा लेने संबंधी औपचारिकताएं पूरी कीं, वहां के मैनेजर तेप सेंग ने मुझे अंकोर क्षेत्र के टूर संबंधी विकल्प बताने शुरू कर दिए। सेंग बताता जा रहा था और मैं अपने भीतर रोमांच का ज्वार बनता महसूस कर रहा था। अंकोर वाट, अंकोर तोम, प्र रूप, प्रे खान, ता प्रोम, ता सोम, बान्ते श्री, बान्ते कदी, रूलोस समूह के मंदिर, सर श्रंग, ईस्ट मेबोन, वेस्ट मेबोन....! कभी पहाड़ी के शिखर पर मौजूद किसी मंदिर से सूर्योदय देखने की बात, तो कभी किसी शिवालय के प्रांगण से सूर्यास्त का दृश्य निगाहों में बसा लेने का सुझाव!
पू्र्वी बराय के मध्य स्थित ईस्ट मेबोन मंदिर... बराय का पानी सूख चुका है और वहां अब धान के खेत हैं
तेप सेंग की बातों से यह अंदाज़ा मुझे हो चला था कि मेरे पास समय कम था और देखने को बहुत कुछ... लेकिन अब जो भी समय था, उसका अधिकतम उपयोग मुझे करना था। अंकोर में घूमने के लिए टैक्सी तथा टुक-टुक बेहतर साधन हैं और यहां के लिए अमूमन दो तरह के एक-दिनी टूर हैं- छोटा फेरा और बड़ा फेरा। यह आप पर है कि कौन-सा टूर लेना चाहते हैं। अंकोर वाट व अंकोर तोम दोनों फेरों में शामिल हैं, दोनों में लगने वाला समय एक-सा है। अंतर यह है कि छोटे फेरे में हम कम दूरी तय करते हैं लेकिन इस रूट पर मंदिर अधिक हैं, जबकि बड़े फेरे में दूरी अधिक है पर मंदिरों की संख्या कम है। अधिकतर सैलानी दो दिन में दोनों फेरे लेते हैं ताकि अधिकतर मंदिर देखे जा सकें। हालांकि, इसके बाद भी कितने ही मंदिर परिसर बचे रह जाते हैं। बान्ते स्रेई जैसे परिसर तो अंकोर से उत्तर-पूर्व में करीब सौ किलोमीटर की दूरी पर हैं। वेस्ट मेबोन तथा रूलोस समूह के मंदिर भी अलग हटकर हैं और इन्हें देखने के लिए अलग से टूर बनाना होता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि समय कितना है और आप क्या छोड़कर जाना नहीं चाहते। बहरहाल, मेरे पास समय एक ही दिन का था और मैंने लंबा फेरा चुना। ...और अगले दिन सुबह उसी गेस्टहाउस में रुके हुए एक इज़रायली सैलानी ओफिर अल-नातन और हमारे टुक-टुक चालक यिन येंग के साथ मैं अंकोर की ओर बढ़ा चला जा रहा था।

दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर
अंकोर वाट में मौजूद यह मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है। यह भगवान विष्णु को समर्पित है
सुबह से लेकर देर शाम तक चलने वाले हमारे इस सफ़र का पहला पड़ाव अंकोर वाट था। अंकोर खमेर शब्द है जो नगर का अपभ्रंश है। वहीं, खमेर शब्द वाट का अर्थ है मंदिर। इस तरह अंकोर वाट का शाब्दिक अर्थ हुआ- मंदिर नगरी। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो अंकोर एक संस्कृति का नाम है जो 9वीं से लेकर 16वीं शताब्दी तक करीब 700 साल तक जीवित रही। 16वीं शताब्दी समाप्त होते-होते तक यह संस्कृति ओझल हो गई, लेकिन इसके वैभवशाली प्रमाण आज तक लोगों को मोहपाश में जकड़े हुए हैं। 
इन ऐतिहासिक प्रमाणों के चिरंतन वैभव की पहली झलक तब दिखी, जब हमारा टुक-टुक अंकोर वाट की पश्चिमी दीवार के बाहर जाकर रुका। तब तक सूर्य उदय हो चुका था और उसकी हल्की सुनहरी किरणों में भव्यता की बेजोड़ निशानी अंकोर वाट के शिखर एक नैसर्गिक आभा में दमक रहे थे। सूरज चूंकि मंदिर के उस पार था, इसलिए शिखरों को छोड़कर बाकी सारा भवन उस साये-सा नज़र आ रहा था जो धीरे-धीरे अपना काला लबादा उतारकर रोशनी में कदम रखने को मचल रहा हो।
अंकोर वाट नगरी के परकोटे की पश्चिमी दीवार का उत्तरी हिस्सा।
अंकोर वाट 200 हेक्टेयर क्षेत्र में बना है, जिसमें परकोटे के बाहर चारों तरफ 190 मीटर चौड़ी खाई भी शामिल है। इस खाई में अमूमन पानी भरा रहता है। खाई के बाद दीवार से घिरी नगरी है जो 1025 मीटर लंबे और 800 मीटर चौड़े क्षेत्र में है। खाई के ऊपर से नगर के प्रवेशद्वार तक पत्थर का पुल है। यह पुल अंकोर वाट बनने के करीब सौ साल बाद अस्तित्व में आया। माना जाता है कि इससे पहले यहां लकड़ी को पुल था जो नगर को बाहर सड़क से जोड़ता था। अंकोर वाट का दूसरा प्रवेशद्वार पूरब में है, हालांकि पश्चिमी द्वार यहां का मुख्य प्रवेशद्वार है। 
इस पश्चिमी प्रवेशद्वार यानी गोपुरा में पांव रखते ही वहां भगवान विष्णु की विशाल प्रस्तर प्रतिमा के दर्शन होते हैं। गोपुरा पार करके भीतर आने पर यहां से मंदिर के मुख्य द्वार तक 350 मीटर लंबा रास्ता है। इस रास्ते पर चलते समय दायें-बायें देखा तो घने पेड़-पौधों के बीच कुछ रास्ते नज़र आए। बताया गया कि ये इस नगर की गलियां थीं जिनके आस-पास कभी बस्तियां आबाद रही होंगी। 350 मीटर चलने के बाद मेरे सामने जो विशाल मंदिर था उसे 12वीं शताब्दी में राजा सूर्यवर्मन द्वितीय ने अपना राजकीय मंदिर बनाया था। इसका निर्माण वर्ष 1112 में शुरू हुआ था और 1150 में सूर्यवर्मन के शासक रहने तक इसमें काम चलता रहा था।
अंकोर वाट मंदर के सबसे ऊंचे तल से दूसरेतल का नज़ारा। यह मंदिर तीन तलों पर बना है
तीसरे तल पर गलियारों के बीच के हिस्से में तालाब थे जहां पवित्र जल एकत्रित रहता था
यूं तो मंदिर परिसर तक पहुंचते-पहुंचते ही मुझे अंदाज़ा हो चला था कि स्थापत्यकला के किसी बेजोड़ नमूने से मैं रू-ब-रू होने जा रहा हूं, मैं किसी भी अचंभे के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुका था, पर यह तैयारी मेरे काम न आई। जैसे ही मंदिर के भीतर पांव धरा, मैंने स्वयं को अजीब-से सम्मोहन में जकड़ा पाया। अप्रतिम..! अद्वितीय...! अवर्णनीय...! पलक झपकाता तो यकीनन वैभवता के इस जीते-जागते दस्तावेज़ की हेठी होती। वहां एक-एक पत्थर बोल रहा था; पत्थरों पर की गई हर छोटी-से-छोटी नक्काशी सांस ले रही थी, दीवारों पर उकेरी अप्सराएं ऐसा अहसास करा रही थीं कि मानो वहां इंद्र का दरबार सजा हो। लग नहीं रहा था ये पत्थर नौ सदियां देख चुके हैं। और ख़ास बात यह कि बाहर से जो एक विशालकाय मंदिर मात्र प्रतीत होता है, वो अपने भीतर रहस्य की कई परतें छुपाए हुए है।
सीढ़ीदार पिरामिड आकार में बने इस मंदिर को अच्छे से देखने के लिए कम-से-कम चार घंटे चाहिए
अंकोर वाट मंदिर सीढ़ीदार पिरामिड के आकार में बना है और इसके तीन तल हैं। हरेक तल पर चारों दिशाओं में गलियारे हैं; गलियारों के मध्य में गोपुरा हैं; हरेक कोने में पत्थर की मीनार है। एक तल से दूसरे तल तक जाने के लिए सीढ़ियां हैं। तीसरा तल सबसे अधिक ऊंचाई पर है और यहां की सीढ़ियां बेहद तीखी हैं। मंदिर के जो विशाल शिखर दूर से नज़र आते हैं, वो तीसरे तल पर ही हैं। चार कोनों में चार छोटे शिखर और उनके बीच में गर्भगृह को महिमामंडित करता सबसे ऊंचा शिखर...! ये पांचों शिखर मेरु पर्वत के प्रतीक हैं जिसे ब्रह्मांड का केंद्र माना जाता है।
अंकोर वाट की परिकल्पना ब्रह्मांड के सूक्ष्म प्रतिरूप की है। यह मूलतः विष्णु मंदिर है, इसका हर पत्थर भगवान विष्णु तथा उनके अवतारों से संबंधित कथाएं कह रहा है... पर गर्भगृह में जाने पर हमें वहां बुद्ध की प्रतिमा स्थापित मिलेगी। माना जाता है कि कालांतर में जब बौद्ध धर्म का प्रभाव खमेर लोगों में बढ़ा तो विष्णु प्रतिमा को हटाकर बुद्ध की प्रतिमा लगा दी गई। यह भी माना जाता है कि यहां से हटाई गई विष्णु प्रतिमा वही है जो मुख्य प्रवेशद्वार के गोपुरा में बने एक छोटे मंदिर में रखी गई है। अंकोर मंदिर परिसर के उत्तर की ओर किसी भवन के अवशेष भी मिले हैं। ये अवशेष वहां कभी राजप्रासाद का अस्तित्व होने की तरफ इशारा करते हैं।

विशाल नगरी की गलियों में
अंकोर वाट में ढाई घंटे बिताने के बाद हम अंकोर तोम की ओर चल पड़े। अंकोर तोम- जिसे खमेर राजा जयवर्मन सप्तम ने 12वीं शताब्दी के अंत में अपनी राजधानी बनाया और जो 16वीं शताब्दी के अंत तक खमेर शासकों की राजधानी रही। अंकोर तोम का शाब्दिक अर्थ है- विशाल नगरी। इसकी लंबाई व चौड़ाई तीन-तीन किलोमीटर है और अंकोर काल की दूसरी सबसे बड़ी राजधानी थी। इससे पहले राजा यशोवर्मन प्रथम ने 9वीं सदी के अंत में यशोधरापुरा नामक राजधानी बसाई थी, जिसकी लंबाई व चौड़ाई चार-चार किलोमीटर थी। लेकिन अब इसके मुख्य अवशेष के रूप में पहाड़ी पर बना इसका राजकीय मंदिर बाखअंग ही बचा है। यह अंकोर तोम के निकट ही थी, इतनी निकट कि जब अंकोर तोम को बसाया गया तो पुराने यशोधरापुरा का कुछ हिस्सा और उस समय बने कुछ मंदिर भी इसकी सीमा में आ गए।
अंकोर तोम नगरी का दक्षिणी प्रवेशद्वार... पहुंचमार्ग पर दोनों ओर समुद्र मंथन का दृश्य बनाया गया है
जयवर्मन सप्तम को खमेर इतिहास के सबसे महत्वाकांक्षी राजाओं में माना जाता है, जिसके शासनकाल में स्थापत्य के अनूठे नमूने सामने आए और जिसने बड़े पैमाने पर भवन निर्माण कराया। जयवर्मन सप्तम बौद्ध धर्म का अनुयायी था और इसके प्रमाण उसके बनाए भवनों में साफ मिलते हैं। इन भवनों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी मुखाकृति शिखर रहे  जो आज भी देखने वालों को अचंभित कर देते हैं। अंकोर वाट में ऐसे शिखर नहीं हैं,  पर वहां से 1.7 किलोमीटर उत्तर में मौजूद अंकोर तोम की तरफ बढ़ते हुए दक्षिणी प्रवेशद्वार जब नज़र की हद में आने लगता है तो एक अद्भुत दृश्य दिखाई देता है। द्वार के ऊपर बने शिखरों में पत्थर इस तरह तराशे गए हैं कि वहां चार विशाल मुखाकृतियां नज़र आती हैं। ऐसी आकृतियां अंकोर तोम के पांचों द्वारों (चार नियमित द्वार और एक विजय द्वार) पर हैं। लेकिन ये इनमें से उत्तरी व दक्षिणी द्वारों पर ही सुरक्षित बनी हुई हैं।
मीनारों पर बनी मुखाकृतियां बेयोन मंदिर की विशेषता हैं.. ये बेयोन शिल्पकला का नमूना हैं
ऐसी आकृतियां हमें काफी बड़ी संख्या में अंकोर तोम के भीतर बने बेयोन मंदिर की मीनारों पर देखने को मिलीं। बेयोन जयवर्मन सप्तम का राजकीय मंदिर था जो दुनिया के सबसे सशक्त धार्मिक निर्माणों में से एक है। अपने स्थापत्य एवं धार्मिक अर्थ की जटिलताओं की वजह से बेयोन हमेशा से इतिहासविदों के लिए जिज्ञासा का विषय रहा है। यह मंदिर तीन किलोमीटर लंबे और इतने ही चौड़े क्षेत्र में बसी अंकोर तोम नगरी के बीचो-बीच बना है। इसका निर्माण जयवर्मन सप्तम ने शुरू कराया, लेकिन बाद के राजा इसमें वास्तुपरक बदलाव तथा नए निर्माण करवाते रहे। शायद यही वजह है कि अन्य अंकोर मंदिरों की तरह इसकी रूपरेखीय परिकल्पना सीधी-स्पष्ट होने के बावजूद भीतर से यह ठसाठस भरा लगता है। दूर से देखो तो लगता है पत्थर के पहाड़ पर मीनारों का जंगल उग आया है। लगे भी क्यों न...! यहां कभी 54 मीनारें थीं जिनमें 37 अब भी हैं जबकि कई के अवशेष मात्र हैं।
 
यहां घूमते समय आपका भ्रमित होना तय है क्योंकि बहुत-से कोने ऐसे है जो किसी योजना का हिस्सा नहीं लगते। लेकिन इसके बावजूद शायद ही कोई ऐसा होगा जो इसके स्थापत्य सौंदर्य से अभिभूत हुए बिना वापस जा पाता होगा। धार्मिक दृष्टिकोण से भी इसकी इतनी जटिलता सामने आती है कि समझ नहीं आता इसे बौद्ध मंदिर कहा जाए या कि हिंदू मंदिर। इसमें कहीं पर शिवलिंग हैं, तो कहीं पर बौद्ध प्रतीक मौजूद हैं। इसका निर्माण शुरू कराने वाले जयवर्मन सप्तम बौद्ध थे, पर उनके बाद के राजा हिंदू थे। जयवर्मन अष्टम ने तो यहां मौजूद बौद्ध विहारों को हटवा ही दिया था। हालांकि, इन विहारों के अवशेष यहां आज भी विद्यमान हैं। 
बापुओन मंदिर...जो अंकोर तोम के अस्तित्व में आने से पहले ही मौजूद था। यह बेहद पुराना मंदिर है
बेयोन के सौंदर्य को आत्मसात करने के बाद हम थोड़ा आगे चले तो सामने बापुओन मंदिर नज़र आया। यह मंदिर अंकोर तोम बनने से पहले ही मौजूद था और इसे नई राजधानी के क्षेत्र में शामिल कर लिया गया था। 11वीं सदी के मध्य में पहाड़ी पर बना यह पिरामिड मंदिर राजा उदयादित्यवर्मन द्वितीय के समय में राजकीय मंदिर था। उस समय भी राजधानी यशोधरापुरा थी, पर राजकीय मंदिर बदल दिया गया था। यहां के पत्थर इसकी उम्र को बयां कर देते हैं। बेहद विशाल इस मंदिर के पांच तल हैं। इसकी ख़ासियत यह है कि अंकोर वाट के अलावा यही एक मंदिर है जहां महाभारत के दृश्यों का चित्रण है। एक दृश्य में भगवान शिव कुछ जादुई अस्त्र अर्जुन को दे रहे हैं। इस मंदिर के पश्चिमी हिस्से में तीसरे तल पर लेटे हुए बुद्ध की अधूरी आकृति है। इस आकृति का निर्माण 16वीं शताब्दी में शुरू किया गया, लेकिन किन्हीं कारणों से इसे अधूरा छोड़ दिया गया।
बापुओन मंदिर के पश्चिमी हिस्से में लेटे हुए बुद्ध की अधूरी आकृति
बापुओन के उत्तर में अंकोर तोम नगर का राजमहल था, लेकिन वर्तमान में एक बावड़ी के अतिरिक्त यहां इस महल के कोई अवशेष नहीं बचे हैं। यह राजमहल उदयादित्यवर्मन के पिता सूर्यवर्मन प्रथम ने बनवाया था। हां, इसके पास भीमानकस नामक रतिमहल ज़रूर सुरक्षित है जहां खमेर राजा अपने साम्राज्य की शक्तिशाली स्त्रियों के साथ रात गुज़ारते थे। 
भीमानकस नामक रति महल जो अंकोर तोम में है
राजमहल तथा रतिमहल के अलावा अंकोर तोम के अन्य मुख्य निर्माणों में एलिफेंट टेरेस हैं जो शाही प्रांगण के ठीक सामने बने मंच का आधार है। यह बापुओन मंदिर की बाहरी दीवार के निकट उत्तर में है। नगर के इस इस हिस्से में राजसी समारोह आयोजित किए जाते थे। एलिफेंट टेरेस के सामने से पूरब की ओर विजय पथ निकलता है जो विजय द्वार तक जाता है। माना जाता है कि चाम (वर्तमान में मध्य वियतनाम) सैनिकों से युद्ध में विजय के बाद जश्न यहीं मनाया जाता था। इस टेरेस से थोड़ा आगे उत्तर में लीपर किंग टेरेस है जहां की दीवारों पर की गई उभारदार नक्काशी दर्शनीय है। चूंकि अंकोर तोम कई शताब्दियों तक खमेर राजाओं की राजधानी रही, तो यहां के निर्माणों में किए गए परिवर्तन साफ दिखाई देते हैं जो अलग-अलग शासकों की सोच पर रोशनी डालते हैं।

सम्मोहित कर गया सूर्यास्त का नज़ारा
अंकोर भ्रमण के लिए एक दिन का समय कम रहने वाला है, इसका अंदेशा मुझे सुबह गेस्टहाउस निकलते समय ही हो गया था। यह शाम को तब सच साबित हुआ जब सूर्यास्त का समय हो चला। यिन ने शोर मचाना शुरू किया- सूरज को डूबते देखना है तो जल्दी करनी होगी। हम उस समय ता सोम मंदिर में थे। यूं तो सूर्यास्त का बेहतरीन नज़ारा पहाड़ी पर बने मंदिर बाखेंग से दिखता है, लेकिन वहां तक पहुंचने का समय नहीं था। हम प्र रूप मंदिर के पास थे। प्र रूप भी पहाड़ी पर बना है। तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ते हुए मैं और ओफिर सबसे ऊंचे तल पर पहुंचे तो वहां सैलानियों की भीड़ जमा थी। सब डूबते सूरज को अपने-अपने कैमरों में क़ैद करने को आतुर थे। पल-पल गहरी होती लालिमा में लिपटा सूरज पश्चिम दिशा की गोद में सिमटता जा रहा था। दृश्य अविस्मरणीय था...और अनुभूति अवर्णनीय!
सूरज के पूरी तरह से डूबने के बाद जब तक हम पहाड़ी से नीचे उतरे, शाम का धुंधलका गहराने लगा था। बड़े फेरे में मंदिर कम थे, फिर भी इनमें से कुछ थे जो देखने से छूट गए थे। मन को तसल्ली दी कि यदि छोटे फेरे पर जाते तो पता नहीं क्या-क्या छूट जाता। प्र रूप मंदिर के दक्षिण में मौजूद सर श्रंग तक पहुंचे तो अंधेरा हो चला था... लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मन-मस्तिष्क के आकाश पर रोशनी जगमगा रही थी। यह जगमगाहट उस ज्ञान की थी जिसे हमने 1200 साल पुराने इतिहास के गलियारों में सुबह से शाम तक घूमकर बटोरा था। रोशनी-भरे इस आकाश को टटोला तो पाया कि ज्ञान की जगमग के बीच अजब-से सुख के सितारे भी टिमटिमा रहे थे।

कई मायनों में अनूठा है अंकोर काल
ऐसे झरोखे अंकोर काल की ख़ास पहचान हैं
अंकोर काल की विशेषता यह रही कि इस दौरान जो भी भवन बना, वो पूरब-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण अक्ष पर बना। हर जगह पर गोपुरा इन्ही चारों दिशाओं में खुलते हैं। इसके अलावा, सभी राजधानी क्षेत्र वर्गाकार हैं... अंकोर वाट को छोड़कर जो कि आयताकार है। हरेक राजधानी क्षेत्र को एक भव्य मंदिर के इर्द-गिर्द स्थापित किया गया वो चाहे बेयोन हो, बापुओन या फिर अंकोर वाट। राजधानी के ठीक मध्य में मौजूद यह मंदिर उस समय राजकीय मंदिर के रूप में उपयोग होता रहा। अंकोर काल की एक अन्य ख़ासियत यह थी कि हर नए राजप्रासाद का निर्माण राजकीय मंदिर के उत्तर में किया गया। अंकोर वाट में इसके अवशेष मंदिर के ठीक उत्तर में मिलते हैं, वहीं अंकोर तोम में बापुओन के उत्तरी दीवार के उस पार राजमहल के अवशेष मिले हैं। यह जानना भी रोचक है कि सभी राजधानियों के परकोटे के बाहर खाई मौजूद है।
अंकोर काल का एक अन्य रोचक पहलू यहां के कृत्रिम जलाशय तथा सरोवर हैं। राजा जयवर्मन सप्तम ने अपनी राजधानी अंकोर तोम के बाहर उत्तर-पूर्व में जयतड़ाक नामक कृत्रिम जलाशय बनवाया था, तो शुरुआती खमेर राजा इंद्रवर्मन प्रथम ने अपनी राजधानी हरिहरालय, जिसे अब रूलोस कहते हैं, के बाहर इंद्रतड़ाक का निर्माण कराया था। इसी तरह, पश्चिमी बराय (सूर्यतड़ाक) तथा पूर्वी बराय (यशोधरातड़ाक) नामक विशाल जलाशय अंकोर कालखंड के दौरान अस्तित्व में आए। इनमें से पश्चिमी बराय में आज भी पानी मौजूद है और यह स्थानीय लोगों के लिए जलीय जीवों का अहम स्रोत है। अंकोर वाट के उत्तर-पूर्व में चार किलोमीटर की दूरी पर मौजूद सर श्रंग (जिसका शाब्दिक अर्थ राजसी सरोवर है) तो आज एक हज़ार साल बाद भी पानी से लबालब है। हालांकि, बराय के मुकाबले यह काफी छोटा है। सर श्रंग को छोड़ दें, तो अन्य प्रत्येक जलाशय (तड़ाक) में खमेर राजाओं ने बाद में कृत्रिम टापू का निर्माण करवाकर मंदिर भी बनवाए।
सर श्रंग जो एक हज़ार साल बाद भी पानी से भरा हुआ है और स्थानीय लोगों के लिए बड़ा जलस्रोत है
अंकोर काल के मंदिर एक सवाल भी उठाते हैं.... और वो यह कि उस गौरवशाली इतिहास के प्रमाण के रूप में अनेकानेक मंदिर अगर आज भी अडिग खड़े हैं तो उस समय के सामान्य आवास या राजप्रासाद क्यों काल की गर्त में समा गए। इसके बारे में माना जाता है कि मंदिर चूंकि आस्था के प्रतीक थे और ईश्वर का निवास स्थान थे, इसलिए उनके निर्माण में मजबूत पत्थरों का प्रयोग किया गया। बहुत संभव यह भी है कि आवास या राजप्रासाद के निर्माण में पत्थर प्रयोग ही न किए जाते हों और इन्हें लकड़ी या अन्य निम्न सामग्री से बनाया जाता हो।

यह यात्रा वृतांत 'अहा ज़िंदगी' पत्रिका के अप्रैल 2012 के अंक (यात्रा विशेषांक) में प्रकाशित....

Comments

Sunil Kumar said…
सुंदर चित्रों के साथ जानकारी आभार
S.N SHUKLA said…
सराहनीय पोस्ट, आभार.

कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें
आपके लेख पढ़कर ऐसा लगता है मानो उसी जगह घूम रहे हों..छोटी-छोटी जानकारियां भी आप समेट लेते हैं.. बहुत अच्छा यात्रा वृतांत
Ajay K. Garg said…
यात्रा वृतांत को सराहने के लिए शुक्रिया सुनील जी, शुक्ल जी...
दीपिका जी... अगर ऐसा लगता है तो मेरा प्रयास सार्थक है। कोशिश करता हूं कि विवरण जीवंत बन पाए...और वास्तविकता भी बनी रहे।
विस्मय, प्रसन्नता और संतुष्टि के वही मिले-जुले भाव मेरे चेहरे पर तो नहीं आए लेकिन मन में कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। कहीं घूमते वक्त जो तमाम छोटी-मोटे किस्से औऱ यादें बनती हैं उनके साथ जिस तरह का भूगोल यात्रा वृतांत में मौजूद है वो लेख को सिर्फ पढ़ने लायक नहीं सहेजने के काबिल बनाता है। मतलब हम कभी कंबोडिया जाना चाहें तो कंबोडिया से पहले बेमकसद जरूर आएं...
सैर-सपाटे के साथ नॉलेज अड्डा भी है यहां ....आए तो यहां बेमकसद ही थे लेकिन जाते जाते मकसद मिल जाता है कि हमे भी कहीं घूम आना चाहिए
जी अमेरिका कनाडा तो दुनिया जाती है - पर ऐसी छुपी हुई जगह को लोग कम जानते हैं...

बेहतरीन पोस्ट... साधुवाद.

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