यात्राएं और प्रेम
यात्राएं हमारे जीवन को फिर से शक्ति एवं प्यार से सींच देती हैं।
सहनशील बनाकर प्रेम सिखाती हैं
-रुमी, प्रख्यात फारसी कवि
जब हम किसी यात्रा पर जाते हैं तो अपना घर बेशक कुछ समय के लिए छोड़ते हैं, पर मन के मैल को हमेशा के लिए कहीं दूर छोड़ आते हैं। हम स्वभाव से निर्मल होकर लौटते हैं; जीवन के सटीक मायनों को समझकर लौटते हैं; हम स्वयं से और पूरी कायनात से प्रेम करना सीखकर लौटते हैं।
जाने-माने अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने जब यह लिखा कि- ‘यात्रा करना पूर्वाग्रह, धर्मान्धता और संकीर्णता के लिए घातक है’, तो उनका इशारा यही था कि यात्राएं आपको भीतर से झाड़-पोंछकर ऐसा बना देती हैं कि आप प्रेम को अनुभव कर सकें, प्रेम को इसके वास्तविक मायनों में जी सकें। प्रेम करने का आधार ही यह है कि हम निश्छल हों; जिससे प्रेम करें उस पर पूरा भरोसा हो; और प्रेम की महक से तन-मन को सराबोर करने के लिए उन्मुक्त मन से उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हों। मन में सवालों की घुंडियां होंगी, तो प्रेम कहां घर बना पाएगा? किसी भी बात को लेकर असहनशील होंगे तो किसी को प्यार से कैसे गले लगा पाएंगे? अपने को दूसरे से बेहतर मानते रहकर दिमाग़ के किसी कोने में अंदेशे पाले रहेंगे, तो किसी के दिल को कैसे छू पाएंगे? क्या संभव है कि जब हम ख़ुद अपने चारों ओर जाला बुनकर बैठे हों, उसमें उलझे हुए कसमसा रहे हों, तो हम किसी को आलिंगन में भर पाएं? क्या छोटी-छोटी बातों में, बेमानी सवालों में अपने आपको जकड़े रखकर मोहब्बत जैसे उत्कृष्ट एवं सार्थक भाव को छूने भर के भी लायक होते हैं हम?
बदकिस्मती यही है कि हम प्यार-मोहब्बत की सोचते तो हैं, लेकिन अपने दिलो-दिमाग के पेचों से निकल ही नहीं पाते। असल में हम घर से ही नहीं निकल पाते। खुद को एक सुरक्षा घेरे में जकड़े रखकर ही हमें राहत महसूस होती है। यह मानकर चलते जाते हैं हम कि ख़तरों से सुरक्षित रहने में ही जीने की सार्थकता है। इस दुनिया में जीना शुरू करने के बावजूद हम कही-न-कहीं सुरक्षा के उस एहसास में डूबे रहना चाहते हैं, जो हमें तब महसूस होता है जब हम अपनी मां की कोख में होते हैं। कोख का वह सुरक्षित घेरा जब छूटता है तो हम रोते हैं। बड़ा होने पर हम रोते बेशक नहीं हैं लेकिन एक सुरक्षा घेरा अपने आस-पास बुने रखने में राहत ज़रूर महसूस करते हैं। तिस पर, बड़ा होते जाने के साथ-साथ पचासों नकारात्मक भावों से अपने को जकड़ते जाते हैं।
घर से निकलना और यात्राओं पर जाना हमारे डर को दूर तो करता ही है, हमें भीतर से निर्मल भी करता जाता है और हमें प्रेम के क़रीब ले जाता है। जाने-माने अमेरिकी लेखक, धर्म-विचारक एवं रहस्यवादी ग्लेन क्लार्क ने इस बात को कुछ इस तरह से व्यक्त किया है- ‘यात्रा करने से पहले सारी कुढ़न, शंका, ईर्ष्या, स्वार्थ और डर को पीछे छोड़कर जाएं, तो आपकी यात्रा हल्की और लंबी होगी।’ यही बात प्रेम के लिए कहें तो? ब्रिटिश निबंधकार एवं उपन्यासकार पीको अय्यर ने कुछ यही कहा है कि यात्राएं किस तरह से हमें बदलती हैं और कैसे वो सब बदलाव प्रेम के लिए भी आवश्यक हैं। पीको कहते हैं- ‘यात्रा करना प्रेम करने के समान है, क्योंकि यह जागरूकता का वो चरम स्तर है जहां पहुंचकर हम सचेत एवं ग्रहणशील हो जाते हैं और बदलने के लिए तैयार होते हैं।’
यकीनन! प्रेम में और कुछ दरकार ही कहां है? इसके लिए हमें अपने जीवन में या अपने आस-पास या दुनिया में किसी दूसरे के अस्तित्व के प्रति सचेत ही तो होना है, उसकी इच्छाओं को महसूस ही तो करना है। कितना सरल है प्रेम का दर्शन! कितना साधारण, कितना सुरुचिपूर्ण! और हम इसे कितना जटिल बनाए रखते हैं, कितने उलझे हुए तरीके से इसके समक्ष संबोधित होते हैं। प्रेम चाहे अपने से विलग मजहब से हो, समाज से हो, परिवार से या मित्रों से हो, या फिर किसी एक व्यक्ति से... सारी दिक्कतें इस बात पर आती हैं कि हम ख़ुद को श्रेष्ठ मानते हुए, अपनी सोच को बेहतर मानते हुए सामने वाले के अस्तित्व को नकार देते हैं। हम कहीं यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि सामने वाले का अपना एक व्यक्तित्व है, उसकी एक सोच है, इच्छाएं हैं।
श्रेष्ठता का भ्रम टूटने पर उपजता है प्रेम
यात्राएं हमें उन जगहों पर ले जाती हैं जहां दुनिया की विशालता हमारे सम्मुख होती है, ज़िंदगी विभिन्न रंगों में हमारे सामने सांस ले रही होती है। ख़ूबसूरत क़ुदरती नज़ारे हमारा स्वागत करते हैं। उस विशालता, उस सुंदरता के सामने श्रेष्ठ होने का हमारा भ्रम कहीं गलने लगता है। हर बीतते पल के साथ, हर एक नई यात्रा के साथ हम वास्तविकता के धरातल पर आने लगते हैं, अपने को सही मायनों में पहचानने लगते हैं। अपना सही-सही मूल्यांकन करते हैं हम, और पाते हैं कि अरे, मैं सब जैसा ही तो हूं! सब मेरे जैसे हैं, कोई भेद-विभेद नहीं हैं... फिर काहे की अकड़? यह कैसे भ्रम में जी रहा था मैं! जिस कुदरत के मैं रू-ब-रू हूं, वो उसी ईश्वर की रचना ही तो है जिसने ये सारी कायनात रची है। जिस तरह यह सारी कुदरत ख़ूबसूरत है, उसी तरह यह सारी दुनिया और इसमें रहने वाले लोग भी तो ख़ूबसूरत हैं। मशहूर फ्रेंच लेखक एवं ‘मादाम बोवेरी’ जैसी महान कृति के रचनाकार गुस्ताव फ्लॉबर की कही एक बात में, हमारे व्यक्तित्व पर यात्रा के इस असर का पूरा सार समाहित है। उन्होंने लिखा- ‘यात्राएं हमें विनम्र बनाती हैं, क्योंकि हम जान जाते हैं कि इस संसार में हमारा अस्तित्व कितना सूक्ष्म है।’
और यह जानते ही हम बदलने लगते हैं। विनम्रता हमें प्रेम करने और पाने के लायक बनाती है। अहंकारी इन्सान कहां किसी प्रेम कर पाते हैं या प्रेम हासिल कर पाते हैं। वो एक झूठ में जीते हैं और एक दिन उसी झूठ में लिपटे दम तोड़ देते हैं। वो तो खुद से भी प्रेम नहीं कर पाते। जब हम विनम्र होते हैं, तो संवेदनशील होते हैं और प्रेम पाने व देने लायक होते हैं। यात्राएं हमारे भीतर यही बदलाव लाती हैं। लेकिन यह बदलाव कितना स्थायी होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम जीवन में इस बदलाव की कितनी सार्थकता देखते हैं, इसके अनमोल होने का कितना अंदाज़ा लगा पाते हैं। लेकिन यह तय है कि बार-बार घर छोड़कर सफर पर निकलने और इस पूरी कायनात में गुम होने से यह असर स्थायी ज़रूर होने लगता है।
अमेरिकी लेखिका एवं आलोचक लिलियन स्मिथ ने हमारे जीवन में यात्राओं की अहमियत को यह कहकर रेखांकित किया है कि- ‘मैंने जल्दी ही समझ लिया कि कोई ऐसी यात्रा नहीं जो हमें दूर ले जाती हो, क्योंकि किसी सफर के दौरान जितना दूर हम आस-पास की दुनिया में निकलते हैं, उतनी ही दूरी हम अपने भीतर की दुनिया में भी तय करते हैं।’ लिलियन के कहने का अर्थ स्पष्ट है। यात्रा के दौरान जितनी सुंदरता हम अपने आस-पास देखते हैं, उतनी ही सुंदरता हमारे भीतर पैदा होती है; जितना प्रेम हम प्रकृति से और इसके नज़ारों से करते जाते हैं, उतना प्रेम हमारे भीतर भी उपजता जाता है।
सहनशील बनाकर प्रेम सिखाती हैं
किसी भी रिश्ते की लंबी उम्र के लिए ज़रूरी है कि हम सहनशील हों, और यह सहनशीलता प्रेम का ही तो एक रूप है। जिनसे हम प्रेम करते हैं, उनके लिए हम नरम होते हैं, लचीले होते हैं, उनकी भली-बुरी बातों को बिना किसी हाय-तौबा के अवशोषित करते हैं। जिनसे प्रेम करते हैं उनकी बातें अक्सर बुरी भी नहीं लगतीं, उनके कामों में मीन-मेख नहीं निकालते हम, उनकी बातों के अन्यथा अर्थ भी नहीं तलाशते। इसे यूं कहें कि जहां सहनशीलता है, प्रेम भी वहीं है, सद्भाव भी वहीं है। हमारे भीतर सहनशीलता का भाव पैदा करने में यात्राओं की कितनी बड़ी अहमियत है, इसका दृष्टांत अमेरिकी रचनाकार एवं कवयित्री माया एंजलो की बात से लग जाता है। माया कहती हैं- ‘शायद यात्राएं हमारे भीतर की धर्मान्धता को न मिटा पाएं, लेकिन यात्राओं के दौरान जब हम यह जानते हैं कि दुनिया का हर इन्सान रोता है, हंसता है, खाता है, फिक्रमंद होता है, और मर जाता है; तो ये हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि यदि हम कोशिश करें और एक-दूसरे को समझें तो कम-से-कम दोस्त बनकर तो रह ही सकते हैं।’
माया का तर्क एक बड़े स्तर पर प्रेम की बात करता है। उस स्तर की, जब हम इन्सान को इन्सान समझकर प्रेम करते हैं, उसके मजहब, जाति, समुदाय के संकीर्ण दायरों से निकलकर उसे प्रेम करते हैं। मार्क ट्वेन की ही बात करें तो वो यह भी मानते थे कि- ‘इन्सानों के बारे में विस्तृत, स्वस्थ एवं हितकारी दृष्टिकोण जीवनभर के लिए धरती के एक कोने में बैठे रहने से नहीं बनते।’ ट्वेन का इशारा यही है कि यदि हम हर तरह की वर्जनाओं से निजात पाकर इन्सान से प्रेम करना चाहते हैं, प्रेमभाव से रहना चाहते हैं, तो हमें सफर पर निकलना होगा। एक मूरिश कहावत भी तो है कि ‘बिना सफर पर निकले कोई व्यक्ति इन्सान की क़द्र करना जान ही नहीं सकता।’ जब इन्सान की क़द्र करना नहीं जान पाएंगे तो उसके जज़्बात की क़द्र करना कैसे जानेंगे? और जब किसी के जज़्बात की क़द्र नहीं कर पा रहे हैं तो फिर बजाते रहिये प्रेम की बीन।
भरोसा करना सिखाती हैं
प्रेम का आधार है भरोसा, प्रेम का पोषण है भरोसा.. जहां हम दूसरे पर भरोसा नहीं कर सकते, वहां प्रेम नहीं हो सकता। और यदि प्रेम होने के बाद भरोसा डगमगाने लगे तो भी प्रेम की नैया डूबी समझिए। यात्राएं हमें किसी पर विश्वास करना सिखाती हैं। किसी यात्रा से लौटे अजनबी इन्सान से पूछिए कि यात्रा पर जाने से पहले वो क्या था और लौटने पर वो कैसा हो गया है। वो मुस्करा देगा; एक अजनबी होने के बावजूद मुस्करा देगा। यह मुस्कराहट प्रमाण है इस बात का कि वो आपको अजनबी नहीं मान रहा है। आप भी एक अनजानी-सी गर्माहट महसूस करेंगे। यह गर्माहट यात्रा ने पैदा की है। इटेलियन कवि, उपन्यासकार एवं अनुवादक सिज़ारे पावेज कहते हैं- ‘यात्रा क्रूरता है जो आपको घर एवं मित्रों से मिलने वाली सारी सुविधाओं से वचिंत करके अजनबियों पर भरोसा करना सिखाती है।’ और अगर हम अजनबियों पर यकीन कर सकते हैं, तो उन पर क्यों नहीं जो हमारे अपने हैं, हमारे आस-पास हैं, हमारे रोज़ की ज़िंदगी के हमराह हैं? उन पर भरोसा करेंगे तो प्रेम भी उपजेगा, चाहे फिर वो किसी भी धर्म को मानता हो, किसी भी विचारधारा का हो, किसी भी पंथ या समुदाय से संबंध रखता हो। हमारा उससे जो रिश्ता होगा वो प्रेम का होगा।
जीवन से प्रेम बढ़ाती हैं
यात्रा हमेशा आगे की तरफ होती है, वो पीछे नहीं लौटती। हम जहां से चलते हैं वहां लौटकर आते हैं, तो भी वो यात्रा की गतिशीलता का ही पड़ाव है। जब हम यात्रा पर होते हैं तो लगातार गतिशील होते हैं, किसी मोड़ पर ठहरते भी हैं तो भी हम यात्रा में होते हैं। यात्राओं की तरह प्रेम भी अवरुद्ध होकर नहीं रहता; न ही प्रेम ऐसे लोगों के हृदय में जगह बनाता है जो ठहरे पानी की तरह होते हैं। प्रेम की सार्थकता भी इसकी निरतंरता में है। यात्राएं हमारे भीतर निरंतरता का भाव भरती जाती हैं, और समय बीतने के साथ यही हमारा स्थायी भाव बनने लगता है। जीवन के प्रति एक सकारात्मक नज़रिया पैदा होता है, जो हमारे प्रेमभाव में भी झलकने लगता है। कैसे नकारात्मक रह सकता है वो इन्सान, जो घर से निकलने की हिम्मत जुटा पाया हो? कैसे डरता रह सकता है वो मनुष्य जो सफ़र की चुनौतियों से जूझने का माद्दा रखता हो? कैसे स्वयं से कटा रह सकता हो वो व्यक्ति जो बेपरवाह होकर सारी कायनात से जुड़ने निकला हो। हम सफर पर जाते हैं तो हमारी आंखें कुछ नया देखने लगती हैं। फ्रेंच लेखक, निबंधकार एवं आलोचक मार्सल प्रूस कहते हैं- ‘खोज की वास्तविक यात्रा नई जगहें देखने में नहीं है, बल्कि नया नज़रिया बन जाने में है।’ हमारे भीतर नया दृष्टिकोण पैदा होते ही हमें ज़िंदगी सार्थक दिखने लगती है। हम जीवन से प्रेम करने लगते हैं।
जब हम किसी यात्रा पर होते हैं, तो यह ज़रूरी नहीं कि हमारा हर पल ख़ुशनुमा या बेहद सुविधाजनक ढंग से बीते। अक्सर ऐसे अनुभव भी होते हैं जो हमारे सामने चुनौतियां पेश करते हैं। हम उन चुनौतियों से जूझते हैं और आगे बढ़ते जाते हैं। हम जानते हैं कि हर जगह यह स्थिति नहीं रहने वाली। आगे रोशनी है, फूल हैं, ठंडी बयार है। लेकिन यही रास्ता जीवन का हो और मुश्किल हालात से जूझते हुए हम घर के एक कोने में बैठे किस्मत को कोस रहे हों, तब? बीते वक्त के घावों को इस तरह से सहेजकर बैठे हों कि आगे की खुशियां भी न देख पा रहे हों, तब? क्या वो प्रेम है स्वयं से? कतई नहीं। लेकिन इस दौर में एक यात्रा, सिर्फ एक लंबी यात्रा आपको बिना कहे सिखा जाती है कि छूट चुका रास्ता या अभी का रास्ता कितना भी कष्टकारी हो, आगे के पड़ाव पर रंग हैं उल्लास है। ...और हम अचानक स्वयं के प्रति प्रेम का नया भाव जगाकर एक नई उर्जा के साथ आगे बढ़े चले जाते हैं। अमेरिकी इतिहासविद मिरियम बिएर्ड ने इस बारे में कहा है- ‘यात्रा नज़ारे देखने के अलावा भी बहुत कुछ है। यह जीवन को जीने के तरीके की सोच में आया बदलाव है जो कहीं गहरे और स्थायी रूप से चलता रहता है।’ इसी बदलाव के लिए ही तो लेखक एवं पत्रकार एलिजाबेथ गिलबर्ट, जो दुनियाभर में चर्चित हुए उपन्यास ‘ईट, प्रे, लव’ की रचयिता है, कहती हैं कि ‘यात्रा करने के लिए कोई भी कीमत या बलिदान कम है।’ ऐसा इसलिए क्योंकि इस बलिदान के बदले में हम प्यार पाते हैं। गिलबर्ट ने अपने इस उपन्यास में एक तरह से अपनी कहानी को ही उतारा है। एक नायिका जो जीवन में प्रेम ढूंढ रही है और उसे प्रेम तब मिलता है जब वो खुद को अपने ही बंधनों से आज़ाद करती है और सफर पर निकलती है।
संवेदनाएं जगाती है हर यात्रा
प्रेम का एक और मूलमंत्र है- संवेदनशील होना। हम जन्मजात संवेदनशील नहीं होते, जीवन के अनुभव हमारे भीतर इस भाव के स्तर को तय करते हैं। यात्राएं वो भांति-भांति के अनुभव हमें देती हैं, जो यह तय करते हैं कि हम किसी स्थिति में कैसे प्रतिक्रिया करेंगे और किसी की ज़रूरतों एवं स्थितियों को लेकर कितना संवेदी होंगे। ये अनुभव तब आते हैं जब हम लोगों से मिलते हैं, उनके बारे में जानते हैं, उन्हें समझते हैं, उनके हालात का मूल्यांकन करते हैं। किसी कुएं के मेंढक की तरह जीवन गुजारकर हम ये अनुभव नहीं ले सकते। और जब तक हमें ये अनुभव नहीं होंगे, हम दूसरों के मानसिक हालात को नहीं समझ पाएंगे, तब तक हम निश्चित होकर नहीं कह सकते कि हम वाकई प्रेम कर सकते हैं।
यात्रा कैसे आपको कुछ सोचने-विचारने पर मजबूर करती है, इसका अनुभव मैंने स्वयं लिया है। घुमक्कड़ी के अपने शौक के चलते मेरे पैर का चक्का चलता रहता है। पिछले बरस यह चक्का कंबोडिया में जाकर थमा। यह वो देश है जहां कई बरस तक खमेर रूज का शासन रहा और उस दौरान एक-चौथाई जनता या तो मार डाली गई या भूख-प्यास से दम तोड़ गई। यह 1970 के दशक के अंत की बातें हैं। वहां आज बहुत कम लोग हैं जो 50-55 बरस की उम्र के हैं, क्योंकि तीस साल पहले खमेर शासन की बर्बरता की सबसे ज्यादा शिकार युवा पीढ़ी हुई थी। लेकिन तब भी वो ख़ुशमिजाज दिखे, अपने गुज़रे वक्त के मातम से आगे बढ़कर वर्तमान को गले लगा रही है। जब उन्हें देखा-समझा-जाना, तो एहसास हुआ कि कितनी बेहतर स्थिति में हैं हम, कहीं ज्यादा ख़ुशकिस्मत हैं उनसे। यह जानकर अपने पर रश्क हुआ। ...और जब हम अपने जीवन की सकारात्मकता की क़द्र करना जान जाते हैं तो दूसरों के हालात को भी बेहतर समझ पाते हैं। प्रेम के लिए नितांत ज़रूरी है कि हम जिनसे प्रेम करते हैं उनके मानसिक एवं भावनात्मक हालात को अच्छी तरह से समझ सकें, आत्मसात कर सकें। प्रेम पाने और देने के लिए हमें सवंदेनशील होना होता है, और यह काम यात्राएं बखूबी करती हैं। जानी-मानी मानवशास्त्री मार्ग्रेट मीड की यह बात यात्राओं और प्रेम के आपसी संबंध को रेखांकित करने के लिए बेहतरीन है- ‘एक यात्री जो घर से एक भी बार बाहर निकला है वो उस इन्सान से ज्यादा समझदार है जो कभी घर की देहरी भी नहीं लांघा... क्योंकि किसी दूसरी संस्कृति का ज्ञान हमारी समझ को पैना करता है और साथ ही अपनी संस्कृति तथा अपने लोगों को अधिक प्यार से समझने की क्षमता देता है।’
यह आलेख 'अहा ज़िंदगी' पत्रिका के 2013 के प्रेम महाविशेषांक में प्रकाशित....
(सभी तस्वीरें लेखक के कैमरे की नज़र से, दुनिया की अलग-अलग जगहों से)
यह आलेख 'अहा ज़िंदगी' पत्रिका के 2013 के प्रेम महाविशेषांक में प्रकाशित....
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