भागते-भागते दूसरे हाफ़ में हांफ गई ‘जॉन डे’
ज्ञानी लोग कहते हैं कि जब मौत सिर मंडरा रही हो तब इन्सान को ज़िंदगी के असल मायने समझ आते हैं, कितनी ही चीज़ें उसे बेमानी लगने लगती हैं और जीवन भर किए अपने ग़लत कामों पर उसे पछतावा महसूस होता है। इन्सान भ्रम के कितने भी चश्मे लगाए चलता रहे, मरते वक़्त उसके सामने सारी तस्वीर साफ़ हो जाती है। मौत से पहले के कुछ ऐसे ही पल उसे मुक्ति दिला जाते हैं। अहिशोर सोलोमन की निर्देशक के रूप में पहली फ़िल्म ‘ जॉन डे ’ का कथानक आम कहानियों जैसा नहीं है कि जिसका कोई तार्किक अंत होता हो। यह फ़िल्म एक स्टोरीलाइन की घटनाओं का चित्रण भर है, लेकिन एक अनकहे सवाल के साथ ज़रूर ख़त्म होती है कि हम जिस सत्य को मरते समय समझकर मुक्ति का अहसास पा जाते हैं (जैसा कि फ़िल्म का एक किरदार ‘ ख़ान साहब ’ कहता भी है), उस मोक्ष की स्थिति को हम जीते-जी महसूस क्यों नहीं कर सकते ? अंतर केवल अपने अदंर के जानवर को ख़त्म करके एक इन्सान होकर सोचने का ही तो है। फ़िल्म ‘ जॉन डे ’ इसी नाम के एक ऐसे आम इन्सान (नसीरुद्दीन शाह) के बदले की कहानी है जिसे पता चलता...