टीवी की क्राइम सीरीज बड़े परदे पर
क्या आप टेलीविजन पर ‘क्राइम पैट्रोल’ या ‘सावधान इंडिया’ जैसे कार्यक्रम देखते और पसंद करते हैं? जवाब अगर हां में है तो फिर अनुराग कश्यप की ताजातरीन पेशकश ‘अगली’ भी आपको पसंद आएगी। ‘अगली’ कुछ सच्ची घटनाओं एवं अनुभवों का मिश्रण है (इसका दावा फिल्म शुरू होने पर किया गया है) और इसे ऐसी ही किसी टेलीविजन सीरीज का बड़े परदे वाला अवतार कहा जा सकता है। अब आप मुझसे यह सवाल कर सकते हैं कि जब हमें ऐसी ‘सत्यकथाएं’ घर में ही छोटे परदे पर देखने को मिल ही जाती हैं, तो फिर फिल्म देखने थियेटर तक क्यों जाया जाए? वो भी तब जब अनुराग हमारे सामने रिश्तों तथा नैतिकता का खोखलापन पेश करने की कोशिश में सस्पेंस/थ्रिल का मसाला डालने का लोभ संवरण नहीं कर पाए हों और ‘अगली’ को कई जगहों पर अवास्तविकता का स्पर्श दे गए हों।
अनुराग की इस फिल्म का शीर्षक अंग्रेजी में है, जो रिश्तों के नकाब के पीछे इन्सान का विद्रूप चेहरा दिखाने की कोशिश के हिसाब से सटीक बैठता है। अगर फिल्म बनाने के पीछे केवल इसी मंशा को लेकर चला जाता तो ‘अगली’ अपने मकसद में कामयाब होती। फिल्म एक 10 साल की बच्ची के गायब होने और उसके बाद उस बच्ची से जुड़े हर व्यक्ति की अवसरवादिता तथा उनके स्वकेंद्रित होने की बानगी है। ‘अगली’ बताती है कि जब बात अपना मतलब हल करने की हो तो किस तरह हम अपने सबसे नजदीकी रिश्ते भी किनारे रख देते हैं। यह फिल्म उस नकली चेहरे को उतार फेंकती है, जो हम अपनी असली सूरत पर पहने रखते हैं। एक ही कहानी में कई परतें समेटे इस फिल्म में बीच-बीच में पुलिसिया तौर-तरीकों पर भी सवाल उठाए गए हैं, मगर इन सवालों के जरिये भी कोशिश उसी असंवेदनशीलता को रेखांकित करने की है जिसे रिश्तों के माध्यम से सामने लाया गया है।
लेकिन ऐसी किसी कोशिश के दौरान अनुराग जैसा सुलझा हुआ फिल्मकार भी बहक सकता है, ‘अगली’ इसका सटीक उदाहरण है। इसके लिए फिल्म के दो-एक अहम दृश्यों पर बात करते हैं। पहला तब जब बच्ची खो जाने के बाद उसका पिता राहुल वार्ष्णेय अपने दोस्त चैतन्य के साथ पुलिस स्टेशन आता है। वहां पुलिस के ‘हमें-कोई-फर्क-नहीं-पड़ता’ वाले रवैये को स्थापित करने और संदेह की सुई राहुल व चैतन्य पर अटकाने के चक्कर में यह दृश्य इतना लंबा हो गया है कि अस्वाभाविक लगता है। खासकर तब जब इंस्पेक्टर जाधव की लगातार ढिठाई के बावजूद राहुल जरा भी नहीं बिफरता- जबकि अपनी बच्ची को खो चुके बाप का बिफर जाना स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती। बजाय इसके, वो वहां मिमियाता रहता है। साफ है कि फिल्मकार की कोशिश उसके मन में अपराध-बोध होने को स्थापित करने की है। इस सस्पेंस को आखिर तक बनाए रखा गया है। दूसरा दृश्य जेल की कोठरी में चैतन्य का राहुल पर गालियों की बौछार करते हुए बरस पड़ने का है। इस बौछार की इस कदर हद हो गई है कि झुंझलाहट महसूस होने लगती है। किरदारों को जमीनी स्पर्श देने के लिए अनुराग उनसे गाली-गलौज करवाने से परहेज नहीं करते। लेकिन अगर अति हो जाए तो सब बनावटी लगता है। यहां भी यही हुआ है और फिल्म जमीन पर आने के बाद रसातल में जाती लगती है।
फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है जो इसे अनुराग कश्यप की फिल्म नहीं बनाता। ‘अगली’ यकीनन अगली कतार में बैठकर सीटी बजाने वाले दर्शकों के लिए नहीं है। पिछली कतारों में बैठने वालों में से भी सिर्फ वही दर्शक इसे पसंद करेंगे जिनके ड्राइंगरूम के किसी कोने में बुकशेल्फ पर दुनियाभर के नामचीन लेखकों की किताबें करीने से सजी रहती हैं और जो हर बड़े-छोटे मुद्दे पर अपनी बेशकीमती राय देकर खुद को बुद्धिजीवी साबित करने से नहीं रोक पाते। हां, अगर आपको रोनित रॉय, गिरीश कुलकर्णी और विनीत कुमार सिंह की कुछ बेहद दमदार अदाकारी देखनी है, तो फिर ‘अगली’ आपके लिए सही दांव साबित हो सकती है।
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