कुछ तो ख़ास है...

बाकी दिनों के मुकाबले आज आंख कुछ देर से खुली है। लेकिन आज मेरा इस्तकबाल कुछ अलग तरह के दिन ने किया है। सूरज बादलों में छिपा है, पर आलम में नई-सी रोशनी नजर आ रही है। पिछली रात से जारी बूंदाबांदी की ठंडक पर वो गरमाहट भारी है जिसे इस वक़्त मैं अपने भीतर महसूस कर रहा हूं। भोपाल में आए आज 11 हफ्ते हो गए। ऐसा पहली बार है कि मैंने गेस्ट हाउस से बाहर कदम नहीं रखा है। बाहर जाने का मन भी नहीं हो रहा। किसी से बात करने का भी नहीं। बस, यूं ही बैठे-बैठे हल्की-सी मुस्कान बार-बार होंठों पे तैरे जा रही है। आज पूरी दुनिया मेरे भीतर आबाद है, तो बाहर जाकर रोशनी तलाशने का भला क्या तुक?

तक़रीबन हफ्ता पहले ही मैंने ब्लॉग बनाया है। किसलिए? बस यूं ही। शायद इसीलिए इसका नाम बेमक़सद रखा है। एक हफ्ते से इस पर कुछ नहीं लिखा। वक़्त था, लेकिन मन नहीं हुआ। पर आज है, और खूब है। लिखने को ऐसा कुछ ख़ास नहीं, लेकिन अंगुलियां थम नहीं रहीं। इसीलिए मन की बात लिख रहा हूं। या यूं कह लें कि मन खोल कर सामने रख रहा हूं। भोपाल आने के बाद से कुछ भी नहीं लिख पाया था। वैसी कुछ आधी-अधूरी ग़ज़लें भी नहीं जिन्हें पूरा करने का समय नहीं निकल पाता और जिन्हें किसी को सुनाने में झिझक लगती है। यहां आने के बाद कई दिन तो शहर का मिजाज़ समझने में गुजर गए, और कई दिन इस ऊहापोह में कि शहर दिल लगाने लायक है या नहीं। लेकिन इन 11 हफ्तों में बड़ी ताल की लहरों ने कुछ ऐसा बांधा कि शहर प्यारा लगने लगा है। यहां आने से पहले भोपाल की एक अलग छवि थी मन में.... एक सपाट, रुखा-सा शहर... कुछ-कुछ रंगहीन भी। लेकिन ऐसा नहीं है। रंग ख़ूब हैं मगर बिखरे-बिखरे से... जो एक मुकम्मल तस्वीर का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। 

आबो-हवा के लिहाज से भी शहर बुरा नहीं है। जब से आया हूं, बारिश की बूंदें कमोबेश हर दिन बदन भिगोती रही हैं। बारिश मेरा सबसे पसंदीदा मौसम है, तो यकीनन यहां मुझे बिन मांगे सौगात मिल गई। हां, यहां लोगों को पूरी तरह से जानना अभी बाकी है। लेकिन ये ऐसी मुहिम है जिसका मंज़िल तक पहुंचना क़रीब-क़रीब असंभव है। किसी को जानते होने का दावा आप नहीं कर सकते। वैसे मुझे बताया गया है कि भोपाल का असल रंग देखना हो इसे सही तरीके से समझना हो, तो पुराने इलाक़े में जाना होगा। मैं नए इलाक़े में रह रहा हूं और पुराने इलाक़े को देखने-बूझने का बहाना मुझे अभी तक नहीं मिल पाया है।

इधर, कुछ नए दोस्त मिले हैं यहां आने के बाद। कुछ यहीं गेस्ट हाउस में साथ रहते हैं, तो कुछ बाहर रहकर भी साथ रहते हैं। असल बात किसी को क़रीब महसूस करने की है। कुछ को मैंने अपने बारे में बहुत कुछ नहीं बताया है, तो कुछ बिन बताए ही बहुत कुछ जानने लगे हैं। अच्छा लगता है इस अहसास का होना कि कोई आपको जानता है, समझ रहा है। ऐसे इन्सान के साथ आप सहज होने लगते हैं। तब ये बात बेमायने हो जाती है कि आप उस इन्सान से बात कर रहे हैं या नहीं--- उसकी आस-पास मौजूदगी ही राहत दे जाती है। तनाव-भरे उदास दिन में ऐसे कुछ ख़ुशगवार पल चेहरे की रौनक लौटाने के लिए काफी हैं। कई बार तो इनका असर अगले दिन तक रह जाता है। और कौन जाने ज़िंदगी भर तक.....

आज कहीं वैसा दिन तो नहीं? या फिर एक नई ज़िंदगी की शुरुआत??

Comments

Jo said…
Hello Sir,
umeed hai aap jald hi bhopal ki khoobsurti k alawa yahan k logo k mann ki khoobsurti se bhi waqif ho jayenge......
By the way it's nice...
Have a gud time ahead....!!!
नए चिठ्ठे के लिए बधाई हो !
आशा रखता हूँ कि आप भविष्य में भी इसी प्रकार लिखते रहे |
आपका
विजयराज चौहान (गजब)
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सुभानअल्लाह. गुरु शहर की रंगत में खुद को घोल लिया है इसकी बधाई भी धन्यवाद भी... इस शहर की एक खामी भी है कमबख्त बांध के रख लेता है परवाज लेने ही नहीं देता और घूमते फिरते पैरों में यूं जंजीर जकड देता है कि हमें पता ही नहीं चलता यह हमारे साथ क्या कारीगरी कर रहा है... अब इत्मीनान से आपकी बेमकसद लफ्फाजी को लपेटेंगे... ये भोपाल की बतोलेबाजी का सा ही अहसास करा रही है... हो भी क्यों न 11 हफ्ते भीतर तक घुस लिए हैं भोपाल में...
शायदा said…
nice blog. write more...abt Bhopal.
Amit K Sagar said…
मुबारक हो भाई. पर हिन्दी ठीक से न दिखने के कारण आपको पढ़ न सका. इसका कुछ करेंगे...उम्मीद है.
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वाह..वाह..क्या बात है.........लिखते रहें........

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