मालदीव- इस बार सुनामी सत्ता के समंदर में

यह काहिरा का तहरीर चौक या बहरीन की राजधानी मनामा का पर्ल चौराहा नहीं था, और न ये दमश्क की गलियां थीं;  न ही यहां पर उतनी तादाद में लोग जमा थे जितने एक साल पहले काहिरा, दमश्क या मनामा में अपने-अपने देश के शासक से मुक्ति पाने के लिए आंदोलन कर रहे थे। पर इनका मक़सद कमोबेश वैसा ही था। यह हिंद महासागर में कुल 1192 टापुओं से मिलकर बने देश मालदीव की राजधानी माले की गलियां थीं जिनमें 16 जनवरी से हर रोज़ हज़ारों लोग जुट रहे थे। ये लोग राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की नीतियों के विरोध में उनसे इस्तीफ़े की मांग कर रहे थे। आंदोलन शुरू होने के 22 दिन बाद 6 फरवरी को आंदोलनकारियों की तादाद 12 हज़ार तक पहुंच चुकी थी। पुलिस विद्रोहियों के साथ थी। शाम होते-होते सेना भी आंदोलनकारियों के साथ आ खड़ी हुई। 
माले के कोने-कोने में लोगों के रेले थे। सवा तीन लाख की आबादी वाले इस देश ने पहली बार अपने लोगों को इतनी बड़ी संख्या में एक साथ देखा था। इसके अगले दिन सुबह एक ख़बर हर चैनल पर थी-मालदीव में तख्तापलट! राष्ट्रपति नशीद ने पद छोड़ा।कुछ देर बाद ख़बर आई-उपराष्ट्रपति मोहम्मद वहीद हसन ने संविधान के अनुसार मालदीव का राष्ट्रपति पद संभाला।इन ख़बरों के साथ ही नशीद का यह बयान भी ख़बर बन रहा था-मुझे लगता है मैं जितना और अपने मुल्क का सदर रहूंगा, मेरे देशवासी तकलीफ़ झेलते रहेंगे। इसलिए मैंने इस्तीफा देने का फैसला किया है।
7 फरवरी को जम्हूरी मैदान में मोहम्मद नशीद के विरोध में जमा हुए मालदीववासी
भारत का यह नन्हा पड़ोसी देश जिसकी सांसें पूरी तरह से पर्यटन पर आश्रित हैं और जो पर्यटकों के ज़रिये आने वाली विदेशी मुद्रा के बिना अपने लोगों की दैनिक ज़रूरतें भी बमुश्किल पूरी कर पाए; उसके लिए यह सियासी उठापटक किसी झटके से कम नहीं थी। इसका असर पर्यटन व्यवसाय पर पड़ना तय था, और कुछ हद तक यह पड़ा भी। मालदीव आने वाले पर्यटक बुकिंग रद्द करवाने लगे। रही-सही कसर इस्तीफा देने वाले राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद के अगले दिन आए विवादास्पद बयान ने पूरी कर दी। उन्होंने कहा कि उनसे इस्तीफा बंदूक की नोक पर लिया गया है। नशीद के कहने का मतलब साफ था कि मालदीव में तख्तापलट हुआ है। ऩशीद ने यह भी कहा कि यह सारा चरमपंथी ताकतों का किया-धरा है जो उनके प्रगतिशील सोच से सहमत नहीं थे। नशीद के इस बयान के बाद कितने ही देशों ने अपने नागरिकों को ताकीद जारी कर दी कि बेहतर है वे मालदीव न जाएं। 

दस दिन बाद माले की गलियां

मोहम्मद नशीद के इस्तीफे के ठीक 10 दिन बाद मैं माले की गलियों में हूं। वहीद की एकीकृत सरकार में नशीद की पार्टी को छोड़कर शेष सारे दल शामिल हैं। नए शासन को असंवैधानिक बताते हुए नशीद अपने समर्थकों के साथ सुनामी स्मारक पर रैली कर रहे हैं। एक दिन पहले भारतीय विदेश सचिव रंजन मतै माले होकर गए हैं। मालदीव में सत्ता परिवर्तन के बाद भारत की ओर से यह पहला सार्थक कदम है। हम कुछ भारतीय पत्रकार भारतीय उच्चायोग के सामने स्थित ट्रेडर्स होटल की ल़ॉबी में स्थानीय पत्रकारों से चर्चा कर रहे हैं। वे मानते हैं कि भारत की पहल का असर हुआ है और संभवतया अंतरिम चुनाव पर सर्वपक्षीय सहमति बन गई है। यह भी कहा जा रहा है कि नशीद की रैली जो पहले हिंसक हो सकती थी, वो अब चुनाव के मद्देनज़र अपनी ताकत के प्रदर्शन जैसी होगी।
अपने समर्थकों के साथ 18 फरवरी को रैली में जाते मोहम्मद नशीद
ट्रेडर्स होटल की लॉबी से हम सब पत्रकार रैली-स्थल की ओर निकलते हैं। यहां पीले झंडे लिए करीब 5 हज़ार लोग जमा हैं जिनमें ज़्यादातर युवा हैं। रैली में उतना पुलिस बल नहीं है जितना सोचा था। हां, रैली स्थल से 2 किलोमीटर दूर जम्हूरी मैदान में महिला पुलिस कमांडो किन्हीं भी हालात से निपटने के लिए ज़रूर मुस्तैद हैं। संकेत साफ है- देश के हालात ने नया मोड़ लिया है। हालांकि, रैली में शामिल ज़्यादातर युवा कहते हैं कि वे इतनी जल्दी चुनाव नहीं चाहते। चुनाव होंगे तो पांच साल की वर्तमान अवधि के बाकी दिनों के लिए सरकार बनेगी... यानी, 11 नवंबर 2013 तक के लिए। मालदीव के संविधान में ऐसा ही प्रावधान है। अगर चुनाव कराए जाने से पहले संविधान में बदलाव नहीं किया गया तो 11 नवंबर 2013 से शुरू होने वाली नई अवधि के लिए फिर से वोट डाले जाएंगे। लेकिन मालदीव के युवा इस विचार से कमोबेश सहमत नहीं दिख रहे। उन्हें लगता है कि यह क़दम देश पर व्यर्थ का आर्थिक बोझ बनेगा। लेकिन वहीं अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इससे बेहतर हल शायद नहीं नज़र आ रहा।
राजधानी माले की एक सड़क पर रात की चहल-पहल और गहमागहमी
मालदीव का एक हॉलीडे रिज़ॉर्ट.. सत्ता-परिवर्तन के बावजूद यहां सैलानियों की कमी नहीं थी
शाम को सवा लाख की आबादी वाले शहर माले की सड़कों व गलियों में चहल-पहल वैसी ही है जैसी मैंने सवा साल पहले की अपनी यात्रा के दौरान यहां देखी थी। लग नहीं रहा कि यह देश एक सियासी संकट से गुजरा है। गर्त यक़ीनन बैठने लगी है। मगर नेशनल म्यूज़ियम में कब्रिस्तान-सा सन्नाटा है। कुछ चरमपंथी तत्वों ने सत्ता परिवर्तन के बाद यहां मालदीव की ऐतिहासिक विरासत को चूर-चूर कर दिया था। इन दिनों ज़्यादातर आगंतुकों की रुचि उन कलाकृतियों में हैं जो विक्षिप्त सोच की भेंट चढ़ चुकी हैं। ये भग्न कलाकृतियां फिलहाल पुलिस के कब्ज़े में हैं- ऐसा संग्रहालय की एक युवा कर्मचारी ने मुझे बताया। शहर में कितने ही विदेश सैलानी दिख रहे हैं। उन्हें नहीं लगता कि किसी को डरना चाहिए मालदीव आने से। कुछ 7 फरवरी से पहले से यहां हैं, और काफी सैलानी उसके बाद आए हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो रिज़ॉर्ट द्वीपों पर रह रहे हैं और माले में सिर्फ ख़रीदारी के मकसद से आए हैं। माले अपनी चिर-परिचित धीमी-धीमी चाल से चल रहा है; राजनीतिक गलियारों में अनिश्चितता के बादल तेज़ी से आ-जा रहे हैं।   

असल में हालात क्या थे?

लेकिन क्या मालदीव के हालात वाकई इतने ख़राब थे जितना समझा जा रहा था? क्या यह तख्तापलट था, या फिर मिस्र, ट्यूनिसिया व यमन की तर्ज़ पर हुई जनक्रांति थी जिसके चलते देश के सदर को अपना पद छोड़ना पड़ा? जिस व्यक्ति को यहां के लोग मामून अब्दुल ग़यूम के तीस साल के लगभग तानाशाही शासन से मुक्ति पाने के लिए आगे लाए, वो क्या तीन साल में ही इतना अलोकप्रिय हो गया कि उसके ख़िलाफ तीन हफ्ते तक लगातार आंदोलन चलता रहा? क्या वजह रही कि मालदीव के निकटतम सहयोगी भारत ने नशीद के हस्तक्षेप करने के निवेदन को उनका आंतरिक मामला बताते हुए अस्वीकार कर दिया, जबकि इसी भारत ने  1988 मेंऑपरेशन कैक्टसके तहत मालदीव में तत्कालीन राष्ट्रपति ग़यूम का तख्तापलट रोका था? भारत ने नशीद के निवेदन को अस्वीकार तो किया ही, मोहम्मद वहीद की सरकार को सबसे पहले मान्यता भी दी।
सबसे पहले भारत ने मालदीव में नई सरकार को मान्यता दी
इन सवालों के जवाब के लिए मालदीव को समझना और मोहम्मद नशीद के इस्तीफे से पहले व बाद के घटनाक्रम का आकलन ज़रूरी है। मालदीव की भौगोलिक स्थिति के कारण यहां के लोग ज़्यादातर समय स्वयं तक सीमित रहे हैं, इन पर बाहरी प्रभाव न के बराबर रहा है। यह अपनी परंपराओं की उंगली थाम चलने वाला समाज रहा है जिसे सीमाओं में रहकर आगे बढ़ने में यकीन है। साल 2008 में यहां जो नया संविधान लागू हुआ जिसमें नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए गए, उसका ताना-बाना भी यहां के चिरंतन तौर-तरीकों से विलग नहीं था। ...और इसी ताने-बाने से छेड़छाड़ किया जाना मालदीव के लोगों को गवारा नहीं हुआ।
मालदीव की सांसें पर्यटन पर चलती हैं... सभी रिज़ॉर्ट टापुओं पर हैं... एक टापू पर एक रिज़ॉर्ट बना है..
मालदीव में उन्हीं द्वीपों पर मदिरापान की अनुमति है जहां सैलानी ठहरते हैं; उन 185 द्वीपों पर नहीं जहां स्थानीय आबादी है। माले इन 185 द्वीपों में से एक है। अपने ख़िलाफ विरोध की चिंगारी नशीद ने तब सुलगाई जब उन्होंने माले में मदिरा उपलब्ध कराने की कवायद शुरू की। राष्ट्रीय टीवी चैनल पर उनकी पार्टी एमडीपी का दबदबा भी लोगों को रास नहीं था। हालांकि, अदालती प्रक्रिया में नशीद की दखलअंदाज़ी लोगों को उनसे दूर करने का सबसे बड़ा कारक रही। एक तरफ मालदीव की जनता ने तानाशाही तौर-तरीकों की वजह से ग़यूम को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था, तो दूसरी तरफ उनका नया नुमायंदा भी कुछ उस राह चल निकला था जिससे देश के पुराने ढर्रे पर चले जाने की आशंका बढ़ रही थी।
पत्रकारों से बात करते मालदीव के गृह मंत्री मोहम्मद जमील
हालांकि, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पहल और स्वास्थ्य बीमा जैसे अच्छे कदम भी नशीद ने उठाए और इससे मालदीव की एक नई छवि भी बनी, पर आंतरिक तौर पर जो चल रहा था उसने नशीद को लोगों से तो दूर किया ही, वे सहयोगी दल भी उनके विरोध में आने लगे जिनके सहयोग से वो राष्ट्रपति बने थे। कभी उनके उड्डयन मंत्री रहे मोहम्मद जमील अहमद विरोध की इस मुहिम में सबसे आगे थे। जमील को बिना किसी आरोप के दो बार गिरफ्तार किया गया। और तो और, जमील को रिहा करने का आदेश देने वाले अपराध अदालत के चीफ जस्टिस अब्दुल्ला मोहम्मद को इस साल 16 जनवरी को गिरफ्तार कर लिया गया। नसीद का यह कदम आत्मघाती साबित हुआ और नशीद को पद छोड़ना पड़ा।
इस आलेख का संपादित अंश 'आउटलुक' के मार्च 2012 के अंक में प्रकाशित....

Comments

इस बार तो आपने बड़ी जल्दी दुबारा दस्तक दे दी। अभी पढ़ी नहीं है। टिप्पणी पढ़ने के बाद..
Ajay Garg said…
आपकी टिप्पणी का इंतज़ार है....!!!!
उम्मीदों पर खरा आलेख.. तस्वीरें आपकी ही ली हुई हैं?
Ajay Garg said…
जी दीपिका... पहली दो तस्वीरें जो 6 व 7 फरवरी की हैं, उन्हें छोड़कर बाकी तस्वीरें मेरी ली हुई हैं। मैं सत्ता-परिवर्तन के दस दिन बाद 17 फरवरी को वहां पहुंचा था। पहली दोनों तस्वीरें मालदीव के मीडिया ने उपलब्ध कराई मुझे...

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