चले आइए मनोंरजन की ‘ज़ंजीर’ से बंधने के लिए

आप एक अच्छी मनोरंजक फ़िल्म बनाते हैं तो फिर चालीस बरस पुरानी किसी हिट फ़िल्म के नाम का सहारा लेने की ज़रूरत कहां रह जाती है! क्यों एक फ़िल्मकार चाहता है कि उसकी रचना के हर कोण हर दृश्य को पुरानी फ़िल्म से तुलना करते हुए देखा जाए। ...और वह भी तब, जब उस पुरानी फ़िल्म की कहानी के ज़्यादातर बिंदु तो नई फ़िल्म में लिए गए हों, मगर नाम को सार्थक करता तर्क फ़िल्म में हो ही न। अपूर्व लखिया की ज़ंजीर एक ऐसी फ़िल्म हैं जिसमें दर्शक को आख़िर तक बांधकर रखने का माद्दा है। इसमें भरपूर मसाला है, एक्शन है, ड्रामा है, अच्छा अभिनय है...और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें रफ़्तार है। 
      हिंदी सिनेमा के रचनाशील लोगों के बीच एक शब्द चलता है- वन लाइनर। यानी, फ़िल्म की कहानी का सार। इस मामले में देखें तो अपूर्व की ज़ंजीर चार दशक पहले आई प्रकाश मेहरा की ज़ंजीरका रीमेक कही जाएगी। अगर किरदारों के नाम की बात करें, तो भी यह फ़िल्म हमें चालीस साल पीछे ले जाती है। इसमें विजय खन्ना है, शेर ख़ान है, माला है, तेजा है, और साथ ही तेजा की मोना डार्लिंग भी है जिसका नाम इतना वक्त बीतने के बाद भी लोगों की ज़बान से उतरा नहीं है। लेकिन अगर स्क्रिप्ट की बात करें तो पुरानी ज़ंजीर’ के मुक़ाबले उसका नया अवतार बिल्कुल अलग है। इसकी स्थितियां अलग हैं, घटनाएं अलग हैं, और किरदारों के स्वरूप की परिकल्पना भी अलग ढंग से की गई है। कहानी को आज के वक़्त के हिसाब से ढाला गया है, जोकि इस ज़ंजीर को नया लुक दे जाता है...और यही बात फ़िल्म को अलग भी करती है।
      अभिनय, फ़िल्मांकन तथा एक्शन के मामले में फ़िल्म दाद देने लायक है। दक्षिण के सितारे रामचरण की यह पहली हिंदी फ़िल्म है। उनके काम की तारीफ़ देनी पड़ेगी। वह परदे पर न केवल बेहद सहज दिखे हैं, बल्कि बचपन में मां-बाप को खो चुके एक ईमानदार इंस्पेक्टर के अंदाज़ एवं जज़्बात को अच्छे से साकार किया है। वे तेलुगू सिनेमा के सुपरस्टार चिंरजीवी के बेटे हैं। उन्हें देखकर लगता है कि यदि अच्छे मौक़े मिले तो वह हिंदी फ़िल्मों में अपने पिता की असफलता का दाग़ धो डालेंगे। खलनायक तेजा की भूमिका में प्रकाश राज दमदार हैं, पर अगर आप उनकी तुलना पुरानी ज़ंजीर के अजीत से करेंगे तो कमीनेपन के मामले में प्रकाश को उन्नीस ही पाएंगे। प्रियंका चोपड़ा अमेरिका से भारत पहुंची माला बनकर परदे पर हैं। माला का पात्र ज़्यादा विविधता लिए नहीं है और उसकी अहमियत सत्तर के दशक की नायक-प्रधान फ़िल्मों की नायिका से अधिक नहीं है। फिर भी परदे पर प्रियंका की ताज़गीभरी मौजूदगी को आप नकार नहीं सकते। मोना के ग्लैमरस रोल में माही गिल को देखना सुखद है। अब तक वह ऐसी किसी भूमिका में नहीं दिखी हैं और उनके लिए यह स्वागत-योग्य बदलाव हो सकता है। हालांकि, फ़िल्म के आख़िरी हिस्सों में निर्देशक ने उनका इस्तेमाल केवल जगह भरने के लिए किया है। संजय दत्त हर दृश्य में असल पठान लगते हैं; प्राण साहब आज ज़िंदा होते तो वे संजय को ज़रूर शाबासी देते। कमिश्नर की भूमिका में चेतन पंडित और पत्रकार बने अतुल कुलकर्णी देखने लायक हैं। दोनों बेहद संयमित रहे हैं और अपने-अपने पात्रों के काफी क़रीब दिखे हैं।
      संगीत के मामले में फ़िल्म मार खाती है। गीतों के बोल साधारण हैं और धुनें औसत। वहीं, संवादों पर मेहनत किए जाने की गुंजायश भी दिखती है। पुरानी ज़ंजीर से एक-दो संवाद ले लेने से बात नहीं बन सकती...और न ही इस फ़िल्म में बन पाई है। कुल मिलाकर यह कि 137 मिनट की यह फ़िल्म दर्शक का अच्छा मनोरंजन ज़रूर कर जाती है। इसे एक महान फ़िल्म तो नहीं कहा जाएगा लेकिन एक अच्छी फ़िल्म ज़रूर कहा जा सकता है।

Comments

Shah Nawaz said…
अच्छी समीक्षा...

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