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Showing posts from July, 2013

यातना के सिवा कुछ और नहीं है ‘इसक’

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पहले कुछ सवाल.... ! क्या बनारसी होने का मतलब केवल ख़ून-ख़राबा करना और बात-बात पर बंदूक निकाल लेना है ? क्या बनारस और आस-पास के इलाक़ों में नक्सली हथियार लहराते हुए खुले घूमते हैं और ‘ लाल सलाम, लाल सलाम ’ का उद्घोष करते नौकाओं में बैठ कहीं भी बेरोक-टोक आ–जा सकते हैं ? क्या हमारी कानून-व्यवस्था इतनी कुंद पड़ गई है कि भारत का एक तहज़ीब वाला शहर यूं लगे मानो हम सोमालिया के जलदस्युओं के अधिकार-क्षेत्र में हों ? क्या नक्सल सरदार इतने मूढ़ होते हैं कि रेत के खनन का अधिकार देने के एक इंस्पेक्टर जैसे नगण्य अधिकारी के वायदे पर एक भरी-पूरी ख़ूनी जंग छेड़ देते हैं ? क्या बनारस में स्पाइरमैन पाया जाता है जो कहीं भी चढ़-उतर सकता है, छलांग लगाकर एक घर से दूसरे घर में पहुंच जाता है ? क्या यह स्पाइडरमैन जब दुश्मन परिवार की छत पर पहुंचता है तो एच.जी. वेल्स का ‘ इनविज़िबल मैन ’ हो जाता है ? क्या शिव की नगरी काशी में कामदेव एक इन्सान के रूप में अवतार ले चुके हैं जो नशे की हालत में एक चुंबन का तीर चलाकर ही नायिका को अपना बना लेते हैं ? अगर आप इन सवालों के जवाब हर हाल में ‘ हां ’ में चाहते हैं तो...

चढ़ पाया केवल अभिनय का ‘नशा’

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फ़िल्म के पहले दो-एक दृश्यों के बाद जैसे ही नायिका के नहाने का दृश्य आता है और जिस ढंग से इसे पेश गया है, उसे देखकर यही सवाल उठता है कि आने वाले दो घंटे तक हम कहीं कोई इरोटिका तो नहीं देखने जा रहे ! लेकिन नहीं...अपनी कितनी ही ख़ामियों के बावजूद इस फ़िल्म का कथानक अपने साथ चित्तवृत्तियों का पिटारा लेकर आता है। इस कारण यह फ़िल्म केवल एक लड़की का अपने से कम उम्र के लड़के से रोमांस का चित्रण भर नहीं रह जाती। ‘ नशा ’ की असली मदहोशी इसके कलाकारों का दमदार अभिनय है, जो लंबे समय तक आपके साथ बना रहता है। अब चाहे वह साहिल की भूमिका में शिवम हों, या फिर अपने-अपने पात्रों को बेहतरीन ढंग से जी रहे शीतल सिंह, नेहा पवार, चिराग लोबो, विशाल भोसले और मोहित चौहान जैसे नए-पुराने कलाकार हों। यहां तक कि कई जगह पूनम पांडेय भी हैरान कर जाती हैं। जिस तरह की पूनम की छवि रही है और मॉडल से अभिनेत्री बनी लड़कियां अपनी पहली ही फ़िल्म में जो करती रही हैं, उसे याद रखते हुए पूनम से वह अपेक्षित नहीं था जो उन्होंने परदे पर निभाया है।       फ़िल्म ‘ जिस्म ’ से चर्चित हुए अमित सक्सेना के हाथ...

हल्की-फुल्की कॉमेडी का ढोल ‘बजाते रहोsss’

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मेहनत और ईमानदारी से गुज़र-बसर कर रहे एक आम मिडल-क्लास परिवार को अगर किसी दूसरे की बेईमानी और बदनीयती का दंश झेलना पड़े और फिर इसकी कीमत उसे सम्मान एवं जान देकर चुकानी पड़े, तो कोई भी इन्सान वही करेगा जो ‘ बजाते रहो ’ में बावेजा परिवार के लोग करते हैं। दिल्ली की एक मध्यमवर्गीय बस्ती की पृष्ठभूमि पर रचे गए इस कथानक में प्यार है, दोस्ती है, झगड़ा है, ख़ुद्दारी है, लालच है, बदला है....और सबसे ख़ास बात इसमें ईमानदारी से चित्रित की गई इन्सानी कमज़ोरियां हैं। इन सब मानवीय विशिष्टताओं के ताने-बाने के नीचे हास्य की धीमी धारा लगातार बहती जाती है। ऐसा हास्य जो आपको ठठाकर नहीं हंसाता, पर मुस्कराने को मजबूर ज़रूर करता है। ‘ जैसे को तैसा ’ की सोच के तहत बदला लिए जाने की युक्तियां बेशक कई जगह अव्यावहारिक लगें, लेकिन उनके पीछे का कच्चापन ही दर्शक को गुदगुदाहट दे जाता है। उसे परदे पर चलता घटनाक्रम परिचित-सा लगता है और वह किसी-न-किसी किरदार में ख़ुद को तलाश ही लेता है।       कुल 107 मिनट की ‘ बजाते रहो ’ इस मामले में विशेष है कि इसमें किसी भी पात्र को सुपर हीरो नहीं दिखा...

शुरू का खिंचाव अंत तक नहीं ले जा पाई ‘डी-डे’

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आपने ऐसी फ़िल्में ज़रूर देखी होंगी जो पहले ही दृश्य में दर्शक की जिज्ञासा को चरम पर पहुंचा देती हैं और फिर अचानक वापस वहीं ला छोड़ती हैं जहां से आप चले थे। इस श्रेणी में अब आप ‘ डी-डे ’ को भी शामिल कर सकते हैं। भारत से निकलकर कराची जा छुपे एक माफ़िया डॉन के ख़िलाफ़ भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी के अभियान को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी अप्रत्यक्ष रूप से दाऊद इब्राहिम की तरफ इशारा करती है, पर इस डॉन ‘ गोल्डमैन ’ का किरदार जिस ढंग से गढ़ा गया है उसमें वह माफ़िया कम, मसखरा ज्यादा लगता है। यह कथानक आशाजनक सुर पर शुरू ज़रूर होता है, लेकिन फिर उसके बाद यूं बिखरता है कि आपका सारा वक्त इसके टुकड़े संभालने की कोशिश में निकल जाता है।        निखिल अडवाणी ने अपनी इस फ़िल्म में जितनी कोशिश इसके दृश्यों को फ़िल्माने में की है, उतनी पटकथा के स्तर पर भी कर लेते तो कथानक का हर मोड़ पर गाढ़ा एवं गहरा होना संभव हो पाता। इससे होता यह कि दर्शक का ‘ टेंशन बिल्ड-अप ’ बढ़ता जोकि किसी भी क्राइम-कम-स्पाई थ्रिलर फ़िल्म के लिए जीवनरेखा से कम नहीं होता। फ़िल्म ही क्यों... माइकल कॉनेली,...

अपने भीतर की यात्रा है ‘शिप ऑफ थिसियस’

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शुरूआत इसके नाम से करते हैं। ‘ शिप ऑफ थीसियस ’ एक विरोधाभास है, जो लंबे समय से दर्शनशास्त्रियों के बीच बहस का विषय रहा है। बहस इस बात पर कि किसी चीज़ का एक हिस्सा बदल देने से वह चीज़ वास्तविक रह पाती है या नहीं। अपनी इस फ़िल्म में फ़िल्मकार आनंद गांधी इस विरोधाभास पर चलने वाली बहस से आगे बढ़ते हुए इसे नैतिकता के तकाज़े तक ले गए हैं। फ़िल्म के ज़रिये आनंद सवाल उठाते हैं कि अगर शरीर का कोई अंग बदल दिया जाए तो क्या हम पहले जैसा इन्सान रह जाते हैं? या इसे यूं कहें कि क्या हम अवास्तविक होने से बचे रह पाते हैं? फ़िल्म में यह सवाल परदे पर ही नहीं रहता, यह देखने वाले में गहरे उतरता जाता है। फ़िल्म आपके दिलो-दिमाग़ में रिसती जाती है और इस सवाल के लिए आप आनंद का शुक्रगुज़ार हुए बिना नहीं रह पाते।       फ़िल्म में तीन कहानियां हैं जिनके लिए यह विरोधाभास एक निराकार सूत्रधार की तरह है। अंत से कुछ समय पहले तक ये कहानियां एक दूसरे से अलग ज़रूर लगती हैं, लेकिन जिस तार्किक तरीके से सब बातों को दृश्यों एवं संवादों के माध्यम से सामने रखा जा रहा है उसे देखकर इतना अंदाज़ा तो...

फ़िल्म देखने के लिए चल ‘भाग दर्शक भाग’

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वह बचपन से भागता रहा था ; भागना उसकी नियति थी। कभी वह मर्ज़ी से भागा तो कभी मजबूरी में। बालहठ के वशीभूत गरम रेत पर दौड़ा, तो कभी अस्तित्व को बचाने के लिए हालात के बवंडर से निकल भागा। कभी बहन का सम्मान न बचा पाने पर भीतर उफनते गुस्से की रौ में भागा, तो कभी कानून के हाथ से बचने के लिए चलती ट्रेन की छत पर भागने से भी उसने गुरेज़ नहीं किया। ...और जब वह मुहब्बत को हासिल करने के लिए खेल के मैदान में भागा, तब दुनिया ने सांसें थामकर उसे देखना शुरू कर दिया।        असल ज़िंदगी में ‘ उड़न सिख ’ के नाम से मशहूर मिल्खा नामक यह शख़्स जब परदे पर दौड़ता है तो आप उसे देखते रहने के लिए लगातार रुके रहना चाहते हैं। वह भागता है तो समय रुक जाता है। परदे पर जीवंत हो रहे मिल्खा को आप यूं एकटक देखते जाते हैं कि वक़्त की पाबंदी बेमानी लगती है। वह इसलिए कि आंखों के सामने भागता मिल्खा एक धावक नहीं बल्कि एक मुकम्मल किरदार है जिसमें इन्सानी भावनाओं एवं संवेदनाओं के कितने ही रंगों को आप अपने भीतर बिखरते हुए महसूस कर पाते हैं।        अगर ‘ भाग मिल्ख...

मंद चाल से चलती एक क्लासिक फ़िल्म है ‘लुटेरा’

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‘ लुटेरा ’ के नाम पर मत जाइए... क्योंकि अगर आप इसके शाब्दिक अर्थ पर जाते हैं तो फिर सोच ही नहीं पाएंगे कि यह फ़िल्म परदे पर चलती एक चित्रमय कविता हो सकती है ; गंगाघाट पर गूंजते रवींद्र संगीत की मद्धम स्वरलहरियों का कोई प्रतिबिम्ब लग सकती है ; इसका हर दृश्य विविध रंगों से ओत-प्रोत एक बड़े कैनवस का आभास दे सकता है। देखने वाले को यह एक ऐसी रचना प्रतीत होती है जिसे शिल्पकार ने बेहद सब्र के साथ पूरा किया है। शिल्पकार को जल्दी नहीं है और उसकी यह सोच फ़िल्म पर भी तारी हो गई लगती है। फ़िल्म निर्माण से लिहाज देखें तो यह लगभग हर तरह से एक क्लासिक फिल्म है, जो सबसे बेखबर अपनी सहज चाल से बहती जाती है। अगर आपका सौंदर्यबोध जागृत है और मंद बयार में बहते रहने से आपको गुरेज़ नहीं है तो यह आपकी फ़िल्म है।        कहानी पचास के दशक की है और इसकी पृष्ठभूमि में उस समय के बंगाल की है जब देश में जमींदारी प्रथा लागू थी। यह बेहद मासूम प्रेमकथा है जिसमें मध्यांतर से ठीक पहले एक अप्रत्याशित मोड़ है, जो आपको अगला दृश्य मिस करने की अनुमति नहीं देता। अब तक धीमी चल रही फ़िल्म यकायक ...