चढ़ पाया केवल अभिनय का ‘नशा’

फ़िल्म के पहले दो-एक दृश्यों के बाद जैसे ही नायिका के नहाने का दृश्य आता है और जिस ढंग से इसे पेश गया है, उसे देखकर यही सवाल उठता है कि आने वाले दो घंटे तक हम कहीं कोई इरोटिका तो नहीं देखने जा रहे! लेकिन नहीं...अपनी कितनी ही ख़ामियों के बावजूद इस फ़िल्म का कथानक अपने साथ चित्तवृत्तियों का पिटारा लेकर आता है। इस कारण यह फ़िल्म केवल एक लड़की का अपने से कम उम्र के लड़के से रोमांस का चित्रण भर नहीं रह जाती। नशाकी असली मदहोशी इसके कलाकारों का दमदार अभिनय है, जो लंबे समय तक आपके साथ बना रहता है। अब चाहे वह साहिल की भूमिका में शिवम हों, या फिर अपने-अपने पात्रों को बेहतरीन ढंग से जी रहे शीतल सिंह, नेहा पवार, चिराग लोबो, विशाल भोसले और मोहित चौहान जैसे नए-पुराने कलाकार हों। यहां तक कि कई जगह पूनम पांडेय भी हैरान कर जाती हैं। जिस तरह की पूनम की छवि रही है और मॉडल से अभिनेत्री बनी लड़कियां अपनी पहली ही फ़िल्म में जो करती रही हैं, उसे याद रखते हुए पूनम से वह अपेक्षित नहीं था जो उन्होंने परदे पर निभाया है।
      फ़िल्म जिस्मसे चर्चित हुए अमित सक्सेना के हाथ इस बार बेहतर कॉन्सेप्ट था जिसे उन्होंने हाथों से फिसल जाने दिया है। पटकथा इतनी कमज़ोर है कि दो घंटे की इस फ़िल्म का पहला एक घंटा बिखरा हुआ नज़र आता है। जॉगिंग करती ख़ूबसूरत टीचर को देखकर किशोरों के मनोभावों तथा उनकी सेक्सुअल अंडरटोन वाली बातों का चित्रण ज़रूर अच्छे-से किया गया है, लेकिन यही करते रहने में लेखक व निर्देशक इतना बह गए कि टीचर के प्रति साहिल के बढ़ते आकर्षण पर उसकी गर्लफ्रेंड टिया की स्वाभाविक प्रतिक्रिया को उन्होंने बिसरा ही दिया है। क्या टिया को दिख नहीं रहा है कि साहिल की रुचि उसमें खत्म हो रही है? या फिर उसे इस बात से कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा है? लेकिन आख़िरी दृश्यों में टिया जिस तरह से जज़्बाती होकार साहिल से सवाल करती है, उससे दर्शक के मन में सवाल ज़रूर उठता है कि यह अब क्यों...पहले क्यों नहीं! यह कमज़ोरी लेखन में है और ताज्जुब होता है कि फ़िल्मकार ने इसे यूं ही जाने दिया है। यह सवाल केवल एक बानगी है, वरना इस पूरी पटकथा में जगह-जगह झोल हैं। हां, बाकी के एक घंटे में जैसे फ़िल्मकार नींद से जागा है और उसने बिखरे हुए सिरे पकड़कर संभालने की कोशिश की है। मगर अफसोस! तब तक डोर हाथ से निकल चुकी है।
      कॉन्सेप्ट के स्तर पर यह फ़िल्म इसलिए अच्छी कही जाएगी कि एक किशोर की अपने से बड़ी लड़की के प्रति आसक्ति को उसके भीतर चलती खींचतान के स्तर और नैतिकता के तकाज़े तक ले जाया गया है। यह अपने से छोटे लड़के को एक अति-कामुक लड़की के बहकाने की नहीं, बल्कि अपनी टीचर को लेकर एक लड़के के जुनूनी होते जाने की कहानी है। किशोरवय में यौन फंतासियों में घिरे रहना, आसक्ति होना और इसका जुनून की हद तक बढ़ जाना स्वाभाविक है, पर हद से आगे बढ़ना तथा किसी पर हक़ समझ लेना पीड़ा के सिवा कुछ नहीं देता। ऐसे में हालात से हाथ छुड़ाकर भागना ही बेहतर है। अपने से छोटे लड़के की आसक्ति के आगे लड़की फिसलती तो है, पर वह उसका इस्तेमाल नहीं करती है। वह जानती है कि यह आकर्षण व्यर्थ है और इसे पीछे छोड़ते हुए वह आगे बढ़ जाती है।
      कच्ची उम्र में मन में घुमड़ती इच्छाओं तथा समझदारी के बीच चलती कशमकश को न पटकथा संभाल पाई है और न ही कैमरा। फिल्मांकन के स्तर पर दृश्यों में गहराई नहीं है और न रोशनी का कुशलता से इस्तेमाल किया गया है। दृश्यों को उभारने का काम केवल संवाद एवं अभिनय नहीं करते, रंग एवं रोशनियां भी करती हैं। इस वजह से फ़िल्म का लुक तीन दशक पुराना लगता है। क्या फ़िल्मकार भूल गया है कि आज के तकनीकी युग में डिजीटल इंटरमीडिएट नाम की एक प्रक्रिया भी होती है जिसे अब छोटा-से-छोटा फ़िल्मकार इस्तेमाल करता है। ख़ैर, इन सब ख़ामियों के बावजूद कलाकारों ने इसे अच्छे से संभालने की कोशिश की है। पहली बार परदे पर दिखे शिवम ने किशोर मन की फिसलन और क्या-करूं-कैसे करूंवाले असमंजस को किसी मंझे हुए कलाकार की तरह जिया है। चेहरे के भावों का अच्छा इस्तेमाल कर गए हैं वह, उनमें संभावनाएं दिख रही हैं। वहीं पूनम ने संवाद अदायगी में तो अच्छी कोशिश की है, लेकिन चेहरे पर भाव लाने के मामले में उन्हें आगे चलकर ख़ासी मेहनत करनी होगी।  

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