शुरू का खिंचाव अंत तक नहीं ले जा पाई ‘डी-डे’

आपने ऐसी फ़िल्में ज़रूर देखी होंगी जो पहले ही दृश्य में दर्शक की जिज्ञासा को चरम पर पहुंचा देती हैं और फिर अचानक वापस वहीं ला छोड़ती हैं जहां से आप चले थे। इस श्रेणी में अब आप डी-डे को भी शामिल कर सकते हैं। भारत से निकलकर कराची जा छुपे एक माफ़िया डॉन के ख़िलाफ़ भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी के अभियान को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी अप्रत्यक्ष रूप से दाऊद इब्राहिम की तरफ इशारा करती है, पर इस डॉन गोल्डमैन का किरदार जिस ढंग से गढ़ा गया है उसमें वह माफ़िया कम, मसखरा ज्यादा लगता है। यह कथानक आशाजनक सुर पर शुरू ज़रूर होता है, लेकिन फिर उसके बाद यूं बिखरता है कि आपका सारा वक्त इसके टुकड़े संभालने की कोशिश में निकल जाता है।
       निखिल अडवाणी ने अपनी इस फ़िल्म में जितनी कोशिश इसके दृश्यों को फ़िल्माने में की है, उतनी पटकथा के स्तर पर भी कर लेते तो कथानक का हर मोड़ पर गाढ़ा एवं गहरा होना संभव हो पाता। इससे होता यह कि दर्शक का टेंशन बिल्ड-अपबढ़ता जोकि किसी भी क्राइम-कम-स्पाई थ्रिलर फ़िल्म के लिए जीवनरेखा से कम नहीं होता। फ़िल्म ही क्यों... माइकल कॉनेली, केन फ़ॉलेट, जैक हिगिन्स या आर्थर हीली के उपन्यास पढ़ लीजिए। आप जान जाएंगे कि क्राइम-कम-स्पाई थ्रिलर चाहे किताब की शक्ल में हो या फ़िल्म के रूप में, इसकी सफलता के लिए पाठक/दर्शक को अपने भीतर एक अनजान तनाव लगातार महसूस होते रहना ज़रूरी है, पर इस फ़िल्म में आप वह तनाव नहीं महसूस कर पाते।
       40 घंटे के समयकाल में कराची से शुरू होकर भारत-पाक सीमा तक जाने वाले इस कथानक में मोड़ इस रफ़्तार से आते हैं कि दर्शक चक्करघिन्नी बना रहता है और कई दृश्यों में ठहरकर कुछ ज़्यादा देखने की इच्छा में विचलित होने लगता है। फ़िल्म को रफ़्तार देने के मायने ये कतई नहीं हैं कि ज़रूरत होने के बावजूद एक दृश्य पूरी तरह से स्थापित न हो पाए। फ़िल्म में कई ऐसे जज़्बाती दृश्य हैं जो ज़्यादा समय मांगते हैं। दूसरे, कई जगह अतार्किकताएं भी कथानक को हल्का करती दिखती हैं। भारतीय खुफ़िया एजेंट पहचान लिए गए हैं, उनकी तस्वीरें अख़बारों तथा टीवी पर हैं, फिर भी उन्हें पड़ोस में कोई नहीं पहचानता, बाजार में आम जनता उन्हें नहीं पहचान पाती। वो डॉन के बेटे के निकाह में विस्फोट करने के लिए कारों में निकलकर आयोजन स्थल तक जा पहुंचते हैं और वहां से निकल रहे डॉन का शहर के बाहर रेलवे लाइन तक पीछा करते हैं, तब भी वे साफ़ बचे रहते हैं। पूरा पाकिस्तान पार करके सीमा तक भी वे बिना किसी दिक्कत के पहुंच जाते हैं। असल में, जहां तर्क न वहां हों वहां दृश्य खोखले लगते हैं। इस तरह की ख़ामियां दर्शक की रुचि को ख़त्म करने के अलावा कुछ नहीं करतीं। तिस पर, फ़िल्म एक डॉन पर है तो ख़ून-ख़राबे की भी कमी नहीं है।
       इस फ़िल्म की ख़ासियत इसका संगीत एवं अभिनय ही कहे जाएंगे। इरफ़ान ने हमेशा की तरह बेहतरीन दिया है, तो अर्जुन रामपाल का अभिनय पहले के मुकाबले परिपक्व दिखा है। वेश्या की छोटी भूमिका में श्रुति हसन तथा इरफ़ान की पत्नी की भूमिका में श्रीस्वरा बिना छाप छोड़े नहीं रहती हैं। जिस तरह का किरदार ऋषि कपूर को दिया गया है, उसमें वह अच्छे जमे हैं। वहीं, संगीत हर जगह दृश्यों एवं ज़रूरत के हिसाब से चलता है, कहीं भी यह थोपा हुआ नहीं लगता है। वेश्यालयों के दृश्यों के बावजूद निखिल इसमें आइटम सॉन्ग डालने का लोभ संवरण कर पाए हैं, तो इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। संगीत के हिसाब से भाग मिल्खा भाग के बाद शंकर-एहसान-लॉय की तिकड़ी की यह एक और बेहतरीन पेशकश है।

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