फ़िल्म देखने के लिए चल ‘भाग दर्शक भाग’
वह बचपन से भागता रहा था; भागना उसकी नियति थी। कभी वह मर्ज़ी से भागा तो कभी मजबूरी में। बालहठ के वशीभूत गरम रेत पर दौड़ा, तो कभी अस्तित्व को बचाने के लिए हालात के बवंडर से निकल भागा। कभी बहन का सम्मान न बचा पाने पर भीतर उफनते गुस्से की रौ में भागा, तो कभी कानून के हाथ से बचने के लिए चलती ट्रेन की छत पर भागने से भी उसने गुरेज़ नहीं किया। ...और जब वह मुहब्बत को हासिल करने के लिए खेल के मैदान में भागा, तब दुनिया ने सांसें थामकर उसे देखना शुरू कर दिया।
असल ज़िंदगी में ‘उड़न सिख’ के नाम से मशहूर मिल्खा नामक यह शख़्स जब परदे पर दौड़ता है तो आप उसे देखते रहने के लिए लगातार रुके रहना चाहते हैं। वह भागता है तो समय रुक जाता है। परदे पर जीवंत हो रहे मिल्खा को आप यूं एकटक देखते जाते हैं कि वक़्त की पाबंदी बेमानी लगती है। वह इसलिए कि आंखों के सामने भागता मिल्खा एक धावक नहीं बल्कि एक मुकम्मल किरदार है जिसमें इन्सानी भावनाओं एवं संवेदनाओं के कितने ही रंगों को आप अपने भीतर बिखरते हुए महसूस कर पाते हैं।
अगर ‘भाग मिल्खा भाग’ केवल एक जीवनवृत होती, तो शायद इसके लिए इतना न कहा जा सकता जो ऊपर कहने को प्रेरित होना पड़ा है। यह फ़िल्म किसी एक शख़्सियत की नहीं है; मिल्खा तो महज एक पात्र हैं...एक वास्तविक पात्र। यह फ़िल्म असल में जज़्बे, जुनून व हौसले का दृश्य-चित्रण है। फ़िल्म में इन तीन प्रमुख घटकों को कहीं पर अपनी ज़मीन से उजड़ने की पीड़ा और अपनों को खोने का दर्द एक सूत्र में पिरोते नज़र आते हैं, तो कहीं पर घृणा, प्रेम, गुस्से, पश्चाताप एवं करुणा के रस इन्हें संपूर्ण करते दिखते हैं।
भारतीय सिनेमा के मापदंडों के हिसाब से राकेश ओमप्रकाश मेहरा की यह फ़िल्म भी ज़्यादातर मामलों में संपूर्णता के नज़दीक जाती लगती है। इसकी कहानी देश की आज़ादी के कुछ पहले से शुरू होकर साठ के शुरुआती दशक तक की है, पर इसमें इस 14-15 बरस की अवधि को साल-दर-साल नहीं दिखाया गया है। अभी आप यहां हैं, अभी अचानक पीछे पहुंच जाते हैं। हर समयकाल एक-दूसरे में गुंथा हुआ है। अलग-अलग समयकाल को दर्शाने के लिए विविध रंगों का तो बख़ूबी इस्तेमाल किया ही गया है, बीच-बीच में राकेश मेहरा जिस सहजता से दर्शक को पीछे ले जाकर वहां से वापस लेकर आते हैं, वह क़ाबिले-तारीफ़ है। कथानक को रोचक बनाने तथा इसमें जरूरी मोड़ देने के लिए मेहरा ने फ़िल्म में कई जगह अपनी कल्पना की आज़ादी का इस्तेमाल भी किया है, पर इससे फ़िल्म का ग्राफ ऊंचा ही हुआ है।
कलाकारों में फ़रहान अख़्तर अपने पात्र को उस ऊंचाई पर ले गए हैं कि अबसे वह पहली पंक्ति के अभिनेताओं में शुमार किए जा सकेंगे। मगर यह फ़िल्म फ़रहान के अलावा पवन मल्होत्रा और दिव्या दत्ता की भी है। इन दोनों ने इतने कमाल का अभिनय किया है कि परदे पर इनकी मौजूदगी दर्शक को मंत्रमुग्ध किए रखती है। वहीं, प्रकाश राज, सोनम कपूर तथा योगराज सिंह अपनी छोटी भूमिकाओं में भी फ़िल्म को ताज़गी दे जाते हैं। फ़िल्मांकन के लिहाज से यह फ़िल्म बिनोद प्रधान का बेहतरीन काम कही जाएगी, वहीं डॉली अहलूवालिया के परिधान तथा शंकर-एहसान-लॉय का संगीत इस फ़िल्म की जान हैं। कहानी, पटकथा, संवाद एवं गीत लिखने का जिम्मा प्रसून जोशी ने बखूबी संभाला है। हालांकि, संवादों के मामले में ज्यादा जान डाले जाने की गुंजायश कई जगह दिखती है। ऐसे बहुत-से दृश्य हैं जिनमें जो आनंद आंखों को मिल रहा होता है वह कानों को महसूस नहीं हो पाता। फिर भी इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘भाग मिल्खा भाग’ समग्र तौर पर एक कमाल की कृति है।
निर्देशक के रूप में इससे पहले आई अपनी फ़िल्म ‘दिल्ली-6’ में राकेश उस मोड़ पर चूके थे, जब इसमें उन्होंने काला बंदर का शिगूफ़ा छोड़ा था। इसके बाद से बाकी बची 30 फ़ीसदी फ़िल्म बिखर गई थी। वहीं, ‘भाग मिल्खा भाग’ में राकेश फ़िल्म के 70 फ़ीसदी हिस्से के बाद मिल्खा को पाकिस्तान ले गए हैं, वहां से फ़िल्म कहीं ज़्यादा मज़बूत एवं गहन हो जाती है। यह महज संयोग रहा या कि फ़िल्मकार का एक सचेतन प्रयास, यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह कहना ज़रूर आसान है कि इस मोड़ के बाद बाकी बची फ़िल्म दर्शक को संवेदनाओं की लहरों में साथ बहा ले जाती है। आज़ादी के बाद के कुछ लम्हों को मेहरा ने फ़िल्म के आख़िरी हिस्से के लिए बचाकर रखा है। यहां पर पहुंचने से पहले तक विजेता की तरह चले आ रहे मेहरा इस मोड़ के बाद विशिष्टता हासिल कर ले जाते हैं।
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-धर्मेन्द्र चौहान