मंद चाल से चलती एक क्लासिक फ़िल्म है ‘लुटेरा’

लुटेरा के नाम पर मत जाइए... क्योंकि अगर आप इसके शाब्दिक अर्थ पर जाते हैं तो फिर सोच ही नहीं पाएंगे कि यह फ़िल्म परदे पर चलती एक चित्रमय कविता हो सकती है; गंगाघाट पर गूंजते रवींद्र संगीत की मद्धम स्वरलहरियों का कोई प्रतिबिम्ब लग सकती है; इसका हर दृश्य विविध रंगों से ओत-प्रोत एक बड़े कैनवस का आभास दे सकता है। देखने वाले को यह एक ऐसी रचना प्रतीत होती है जिसे शिल्पकार ने बेहद सब्र के साथ पूरा किया है। शिल्पकार को जल्दी नहीं है और उसकी यह सोच फ़िल्म पर भी तारी हो गई लगती है। फ़िल्म निर्माण से लिहाज देखें तो यह लगभग हर तरह से एक क्लासिक फिल्म है, जो सबसे बेखबर अपनी सहज चाल से बहती जाती है। अगर आपका सौंदर्यबोध जागृत है और मंद बयार में बहते रहने से आपको गुरेज़ नहीं है तो यह आपकी फ़िल्म है।
       कहानी पचास के दशक की है और इसकी पृष्ठभूमि में उस समय के बंगाल की है जब देश में जमींदारी प्रथा लागू थी। यह बेहद मासूम प्रेमकथा है जिसमें मध्यांतर से ठीक पहले एक अप्रत्याशित मोड़ है, जो आपको अगला दृश्य मिस करने की अनुमति नहीं देता। अब तक धीमी चल रही फ़िल्म यकायक तेज़ होती दिखती है, पर कुछ समय बाद यह फिर अपनी पुरानी गति पर लौट आती है। मध्यांतर के बाद प्रेम पर प्रतिशोध की भावना का हावी होना दिखाया गया है और फ़िल्म के अंत में प्रेम एवं प्रतिशोध एक-दूसरे के समानांतर चलते नज़र आते हैं। जब ये दोनों भावनाएं साथ हों तो कैसा विरोधाभास एवं द्वंद्व पैदा होता है, उसका बख़ूबी चित्रण इस फ़िल्म की सफलता ही कही जाएगी। रणवीर सिंह ने ठोक-बजाकर बता दिया है कि सहज अभिनय में उनको टक्कर देना आसान नहीं है। सोनाक्षी का अभिनय आए दिन निखर रहा है। लुटेरा उनकी अब तक की बेहतरीन फ़िल्म कह सकते हैं और इसमें उनका काम देखकर उनके पिता शत्रुघ्न सिन्हा इन दिनों अवश्य ही छाती फुलाए घूम रहे होंगे।
       यह कहानी ऐसी है जिसकी अपनी स्वाभाविक गति है। पचास के दशक में ज़िंदगी आज जितनी तेज़ नहीं थी, तो यह फ़िल्म भी उस हिसाब से चलती है। कोई भी समर्पित फ़िल्मकार कहानी की आत्मा से समझौता नहीं करता, बेशक फ़िल्म बनाने के दौरान उसे बॉक्स ऑफिस पर इसकी सफलता की कम उम्मीदों के अंदेशे में ही क्यों न जीना पड़े। विक्रमादित्य मोटवानी उस धारा के युवा फ़िल्मकार हैं जो सिनेमा को कुछ मानीखेज़ आयाम देने के इरादे से आए हैं। उनकी पहली फिल्म उड़ान इस बात का मजबूत प्रमाण है। उनकी इस नई फ़िल्म को रचनाशीलता के दूरबीन से देखें तो उन्होंने कहीं कसर नहीं छोड़ी है। हां, मध्यांतर के बाद कुछ जगह वह ज़रूर भूल गए हैं कि एक्शन्स स्पीक लाउडर दैन वर्ड्स। जहां किसी एक्शन के बाद ख़ामोशी ज्यादा असरकारी थी, वहां बेवजह संवाद भरे गए हैं। शायद विक्रम इस चक्कर बह गए हैं क्योंकि पहले पौने दो घंटे तक यह काफी ख़ामोश फ़िल्म है। इस बात को छोड़ दें तो...कहानी से लेकर पटकथा तक, कैमरा के कोणों से लेकर कलाकारों के चयन तक, दृश्य चित्रण से लेकर दमदार अभिनय तक...सब जगह विक्रम वाहवाही लूटते नज़र आते हैं। फ़िल्म में कई जगह तो यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि कहीं इसका शीर्षक लुटेराविक्रम ने अपने लिए तो नहीं रख छोड़ा है।
       यहां यह ज़रूर है कि फ़िल्म की बेहद धीमी चाल से वो दर्शक ऊब जाएंगे जो सिंघम या गोलमालजैसी फ़िल्मों का ख़ूब रस लेते हैं और सप्ताहभर के तनाव के बाद सिनेमाघर में इसलिए जाते हैं ताकि लगातार रोमांचित बने रह सकें और ठठाकर हंस सकें। ऐसा दर्शकवर्ग इस फिल्म को शायद सिरे से नकार दे।

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