शराफत का फल मीठा होता है
पल-पल आते नए मोड़, कसी हुई पटकथा, महज छह किरदारों के
आसपास घूमती कहानी, लगातार बनी हुई दिलचस्पी और शानदार
अदाकारी... फिल्म 'शराफत गई तेल लेने' के
बारे में कुछ बताने के लिए इतना काफी है। जिस तरह से इस फिल्म बारे में कम बात हुई,
उसके मद्देनजर निर्देशक गुरमीत सिंह की यह फिल्म किसी अचंभे की तरह
आपके समक्ष परत-दर-रत खुलती जाती है। फिल्म का यही 'आगे-क्या-होगा' वाला तत्व है जो इसकी खासियत है और फिल्म में रोमांच की पकड़ को कहीं
ढीला नहीं होने देता।
एक अदद नौकरी
के बलबूते जिंदगी बिताने और अपना आशियाना सजाने वाले किसी युवा के हाथ अचानक सौ
करोड़ लग जाएं और वो अनजाने ही खुद को अंडरवर्ल्ड तथा हवाला के मकड़जाल में फंसा
पाए, तो फिर सारे कस-बल निकलना तय है। दिल्ली में सैम (रणविजय सिंघा) के साथ फ्लैट
शेयर कर रहे और एक आर्किटेक्ट कंपनी में नौकरी कर रहे पृथ्वी खुराना (जायद खान) के
साथ यही होता है। एक-एक पैसा जमा करके शादी की तैयारियों में जुटे पृथ्वी के
अकाउंट में एक दिन छप्पर फाड़कर पैसा बरसता है और इसके बाद शुरू होता है अपनी
मंगेतर मेघा (टीना देसाई) को बचाने की जद्दोजहद में अंडरवर्ल्ड डॉन के इशारों पर
नाचने का सिलसिला। कहानी नए-नए अप्रत्याशित मोड़ लेती है और इसकी रोचकता का पैमाना
कहीं कम नहीं होने पाता। फिल्म की गति भी इस कदर संतुलित है कि कहीं भी बोझिलता
महसूस नहीं होती।
'शराफत गई तेल लेने' में छह किरदार हैं। इसे पटकथा
लेखक का काबिलियत कहेंगे कि उसने इन छह के इर्द-गिर्द 108 मिनट का कथानक बुन डाला।
मुख्य किरदारों में जायद पूरी तरह से किरदार में हैं। हालात के चक्रव्यूह में फंसे
एक शरीफ युवा की भूमिका को उन्होंने आत्मसात किया है और यह फिल्म उन्हें एक काबिल
अभिनेता के रूप में सामने लाती है। एक समय बाद आपको यह याद ही नहीं रहता कि आप
परदे पर पृथ्वी को नहीं बल्कि जायद खान को देख रहे हैं। जायद यहां शाबासी बटोर ले
जाते हैं। वहीं टीना देसाई और रणविजय के लिए भी यह फिल्म अभिनय करियर का अहम पड़ाव
साबित होगी। टीना में आप आने वाले कल की एक सरल-सहज अदाकारा का चेहरा देखते हैं,
बशर्ते उन्हें अच्छे मौके मिलते रहें। फिल्म इंडस्ट्री में पांच साल गुजारने के
बाद अब रणविजय भी खम ठोंककर अपने आगे के दावे पेश कर सकते हैं। इन तीनों के अलावा फिल्म
के अन्य कलाकार अनुपम खेर, यूरी तथा टालिया बेन्टसन हैं। बाकी सब सहायक कलाकार हैं
जो केवल रिक्त स्थान भरने के लिए हैं।
फिल्म आपको
इसलिए भाएगी क्योंकि इसमें अभिनय पक्ष की मजबूती को पलभर भी नजरअंदाज नहीं होने
दिया गया है। इसलिए फिल्म में नाटकीयता नहीं है बल्कि यह किसी सच्ची कहानी जैसी
महसूस होती है। दूसरी बात यह कि इसमें शरीफ बनने का उपदेश नहीं है, बल्कि मुख्य
किरदारों से जुड़कर उनकी नैतिकता को आप स्वयं भीतर समेटते हैं। फिल्म का संगीत
खुशनुमा अहसास देता है और इसका एक गीत ‘दिल का फंडा’ दिल को छूकर निकलता है। 'शराफत गई तेल लेने' को इसके हल्के-फुल्के मनोरंजन
तथा शानदार अदाकारी के लिए जरूर देखा जाएगा।
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