एक सुलझा हुआ रहस्य
आखिर किसने की आयशा महाजन की हत्या? फिल्म ‘रहस्य’ की कहानी इसी सवाल की धुरी पर घूमती है। टीनएजर आयशा के माता-पिता डॉक्टर हैं। शक की पहली सुई पिता की तरफ घूमती है और केस आखिरकार सीबीआई के पास चला जाता है।
क्या कहानी कुछ-कुछ नोएडा के सात साल पुराने आरुषि मर्डर केस जैसी लग रही है? यकीनन!! मोटे तौर पर फिल्म की कथावस्तु उसी मामले पर आधारित है, लेकिन ‘रहस्य’ की परतें ठीक आरुषि हत्याकांड जैसी नहीं हैं। फिल्म के लेखक-निर्देशक मनीष गुप्ता ने कल्पनाशीलता के सहारे कहानी को अलग तरह के मोड़ दिए हैं और इस तरह वे एक अच्छी फिल्म बनाने में सफल रहे हैं। ‘रहस्य’ की खासियत यह है कि यह आपको शुरू से अंत तक बांधे रखती है और कहीं भी अपनी पकड़ ढीली नहीं पड़ने देती। और जैसा किसी अच्छी मर्डर मिस्ट्री में होना चाहिए कि कातिल का अंत तक पता न चले... तो उस पैमाने पर भी यह फिल्म खरी उतरती है।
फिल्म की शुरुआत अपने ही बेडरूम में आयशा महाजन की खून से लथपथ लाश मिलने से होती है। इसके बाद हर नए दृश्य में नए-नए संदेह पैदा करते हुए कहानी आगे ले जाई गई है। इस दौरान मनीष जिस सफाई से महाजन परिवार से जुड़े हर व्यक्ति को संदेह के घेरे में लेकर आते गए हैं, वह काबिले-तारीफ है। उन्होंने तर्क का सहारा लिया है और अंत में पूरा मामला शीशे की तरह साफ होते वक्त संदेह के घेरे में आए व्यक्तियों की गतिविधियों का औचित्य साबित करने में वे सफल रहे हैं।
अगर आप ‘क्वीन ऑफ क्राइम’ कही जाने वाली ब्रिटिश लेखिका अगाथा क्रिस्टी की मर्डर मिस्ट्रीज पढ़ते रहे हैं, तो आपको ‘रहस्य’ की बुनावट क्रिस्टी के कथानकों की तरह ही व्यवस्थित एवं अनुशासित लगेगी। वहीं, आपको ‘रहस्य’ के नायक सुनील पारस्कर (केके मेनन) में क्रिस्टी के विश्वविख्यात किरदार हरक्यूल पोयरो की दिमाग की कोशिकाओं को तकलीफ देकर मामला हल करने वाले जासूस की झलक भी दिखेगी। और तो और, जिस तरह क्रिस्टी के उपन्यासों में पोयरो सभी संभावित कातिलों को एक साथ बुलाकर रहस्य से परदा उठाता है, वैसे ही ‘रहस्य’ में पारस्कर भी कातिल का चेहरा सामने लाता है। यह अंदाज नया है और आपको पसंद भी आएगा। यह जरूर है कि पारस्कर अखरोट खाता रहता है, जबकि पोयरो ऐसा नहीं करता। तो क्या वहां आपको बात-बात पर गाजर चबाने वाले अपने देसी जासूस करमचंद की याद दिलाई जा रही है?
जो भी है मगर ‘रहस्य’ के जरिये मनीष एक सुलझी हुई फिल्म पेश करने में सफल रहे हैं। हालांकि, दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ा ढीली पड़ती है जब सबकुछ बहुत तेजी से घटित होने लगता है। यहां मध्यांतर से पहले वाली गति को बरकरार रखा जाता तो बेहतर होता। फिल्म के बेहतर होने की वजह यह भी है कि हर कलाकार अपने किरदार में समाया है। अदाकारी के पैमाने पर यह फिल्म ऊंचे पायदान पर है। केके मेनन जैसे अदाकार को ‘बेबी’ में जरा-सा रोल देकर जो नाइंसाफी की गई, उसकी कमी वे यहां बखूबी पूरी कर गए हैं। एक और खास बात यह कि इस फिल्म में कहीं गानों की गुंजायश नहीं थी और संगीत के आधार पर फिल्में सफल होने वाले इस दौर में भी ‘रहस्य’ में कोई गाना नहीं रखा जाना हिम्मत ही नहीं अक्लमंदी का काम भी था। फिल्म के कम प्रचार के बावजूद अगर दर्शक यह फिल्म देखने सिनेमाघर तक जाएगा तो तय है कि निराश होकर नहीं लौटेगा।
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