ऊबाऊज़ादा, पकाऊज़ादा... आधे से ज्यादा इश्कज़ादा
अगर ‘हवाईजादा’ के शुरुआती कुछ पलों में इसके शानदार सेट को देखकर आप मंत्रमुग्ध रह जाते हैं और बड़ी उम्मीदें बांध लेते हैं तो इसे आपकी ही गलती माना जाएगा, क्योंकि कुछ देर बाद आपका ऊब के समंदर में गोते लगाना और बार-बार झुंझलाहट से दो-चार होना तय है। पहले पौने घंटे तक आपको चार गाने सुनने को मिल जाते हैं। ऐसे में यदि खुद से यह सवाल करें कि आप फिल्म क्यों देख रहे हैं, तो यह सवाल कतई बेमानी नहीं होगा।
पहले एक घंटे तक तो इसके नाम पर जाइए ही मत! 19वीं सदी के अवसान के दौर में आधारित ‘हवाईजादा’ में आयुष्मान खुराना जिस अन्वेषक शिवकर तलपड़े का किरदार निभा रहे हैं, वो तब स्थापित होता है जब 157 मिनट की यह फिल्म आधी जा चुकी होती है। उससे पहले शिवकर नालायक किस्म के आशिक के तौर पर ही सामने आता है, जो अक्सर नशे में रहता है। उसका दिल सितारा (पल्लवी शारदा) नामक नर्तकी पर आता है, तो फिर वहीं अटका रह जाता है। पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी होने के बावजूद वह काबिल है, यह आप तब जान पाते हैं जब शास्त्री जी (मिथुन चक्रवर्ती) शिवकर के घर जाकर उसके कमरे में घुसते हैं। इशारा साफ है कि फिल्म की पटकथा में ही लोचा है और यही लोचा फिल्म को कच्चा निगल भी गया है।
‘हवाईजादा’ की कहानी इस दावे पर आधारित है कि विश्व का पहला विमान साल 1903 में अमेरिका के ओलिवर बंधुओं ने नहीं उड़ाया था, बल्कि इसे मुंबई के प. शिवकर तलपड़े ने वर्ष 1895 में ही बना लिया था। प. तलपड़े को वेदों तथा विमानशास्त्र का ज्ञाता माना जाता है। विभु पुरी लिखित एवं निर्देशित इस फिल्म में प. तलपड़े के किरदार को कैसे भी पेश किया गया हो, मगर हकीकत यह है कि फिल्म अपने ही मूल तत्व से लंबे समय तक वंचित रहती है।
असल में एक युवा की विमान बनाने की जिद के अलावा फिल्म की कहानी के लिए कुछ ज्यादा जुटाया ही नहीं जा सका है। ऐसे में लेखक ने न केवल इश्कबाजी को जरूरत से ज्यादा खींच दिया है बल्कि इसे गलत वक्त पर और बेहद हल्के ढंग से परोस भी दिया है। मिसाल के तौर पर- शिवकर के जज्बात मंजूर करने के लिए सितारा का तीन शर्तें रख देना, अंग्रेज अफसर का दांत उखाड़ देना, दोनों का घोड़े पर चढ़कर भागना- इन बचकाना बातों की वजह से न तो प्रेम की गहनता परदे पर दिखती है और न ही यह प्रेम शिवकर के लिए प्रेरणास्रोत बनकर सामने आता है। ऐसे में शुरुआत से ही फिल्म बिखरने लगती है; विभु इसे समेटने में नाकाम रहे हैं, जिस कारण यह बेवजह खिंचती चली गई है। इसके अलावा, शास्त्री जी के पीछे पुलिस दौड़ना, पतंगबाजी के दृश्य, दोस्त के साथ बार में डांस देखने जाना, स्वामी का शिवकर के समक्ष यक्ष की तरह चार प्रश्न रख देना जैसी फिजूल बातें ठूंसे जाने से साफ है कि फिल्मकार बहुत गहरे न जाते हुए सतह पर ही लंबे-लंबे डग भर रहा है।
फिल्म में गीतों की भरमार है। इसमें कदम-कदम पर गाने भरे हुए हैं जोकि बोझिलता बढ़ाते हैं। अभिनय के नाम पर भी ऐसा कुछ नहीं है जिसका जिक्र किया जाए। आयुष्मान ने चेहरे पर जरूरत से ज्यादा हाव-भाव लाकर अपने अभिनय कौशल में कमी की भरपाई करने की कोशिश की है, पर इस कारण वे ज्यादातर समय कृत्रिम लगे हैं; कुछ कर दिखाने का बीड़ा उठा चुके युवा का जुनून उनकी अदाकारी से नहीं झलक रहा। पल्लवी कुछ जगह मोहक लगती हैं, पर अदाकारी के नाम पर उनकी झोली खाली ही रही है। मिथुन भी उस ऊंचाई पर नहीं हैं, जहां तक वे अपने किरदार को ले जा सकते थे। ऐसे में ‘हवाईजादा’ एक ऐसी निरर्थक कोशिश के तौर पर सामने आती है, जो पहले-पहले अपनी आभा से प्रभावित तो करती है मगर आखिरकार ‘ऊंची दुकान फीका पकवान’ से अधिक कुछ साबित नहीं हो पाती।
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