शक्लो-सूरत अच्छी मगर जीन कमजोर

फिल्मकार नीरज पांडेय की पहली दो फिल्मों ए वेन्सडे और स्पेशल 26 ने एक तरह से ऐलान कर दिया था कि नीरज ऐसे थ्रिलर बनाना पसंद करते हैं जिनमें देशप्रेम के जज्बे का समावेश हो और जो बहुत हद तक वास्तविक लगें। लेकिन क्या उस वास्तविकता को अचूक ढंग से पेश करने के लिए नीरज रिसर्च भी उतनी ही शिद्दत से करते हैं? या फिर यह कि रिसर्च के मामले में नीरज अब बेपरवाह, थोड़ा आत्मसंतुष्ट होने लगे हैं? उनकी नवीनतम थ्रिलर बेबी को देखने के बाद कुछ ऐसा ही सवाल मन में आता है, क्योंकि कई जगह हुई कुछ बड़ी चूकों ने एक अच्छी-भली फिल्म को उस स्वादिष्ट पुलाव की तरह बना दिया है जिसे खाते वक्त मुंह में बार-बार कंकड़ आते रहें।
      बड़ी चूकों तक जाने पहले फिल्म के इन दो संवादों पर गौर कीजिए। एक जगह टीवी रिपोर्टर कह रही है- इसलिए मुकदमा आगे के लिए रद कर दी गई है। भाईजान, मुकदमा आगे के लिए मुल्तवी होता है, रद नहीं होता; दूसरे, मुकदमा होता है होती नहीं। दूसरी जगह आतंकी बिलाल के लिए टीवी एंकर कह रही है- ‘बिलाल, जिसे कोर्ट वापस ले जाया जा रहा था, वे फरार हो गए। वाह, खूब इज्जत परोसी एक आतंकी के लिए, वो भी उस फिल्म में जिसका मूल देशप्रेम के जज्बे में निहित है।
अब आगे चलते हैं। इंटेलीजेंस चीफ फिरोज (डैनी) दिल्ली में हैं। वहीं, मुंबई में खुफिया एजेंट अजय (अक्षय) से मिलने आफताब नामक युवा आता है, जो उसे मुंबई में आईएसआई एंजेट का पता बताता है और आतंकी साठ-गांठ का भेद खोलता है। कार्रवाई तुरंत होनी है, पर दूसरे ही पल अजय को दिल्ली में फिरोज के सामने खड़ा दिखाया जाता है, वहीं तीसरे ही पल वह मुंबई में जीनत महल पर धावा बोलने जा रहा है। तो क्या अजय दिल्ली और मुंबई के बीच ट्रांसमिट हो रहा है?? यहां आपके मन में यह सवाल भी आता है कि क्या किसी दुश्मन देश के एजेंट का पता लगने के बाद उसे स्पेशल टीम यूं ही आजाद छोड़कर आ जाएगी?
फिल्म के असलियत के करीब होने पर बड़ा सवाल तब उठता है जब बेहोश पड़े आतंकी सरगना मौलाना को मेडिकल इमरजेंसी बताकर सऊदी अरब से भारत लाया जाना है। यहां इतिहाद एयरलाइन्स का जोर देकर जिक्र होता है। एतिहाद की सारी उड़ानें अबु धाबी होकर भारत आती हैं। तो क्या किसी खतरनाक खुफिया ऑपरेशन में जुटे लोग इतने अनाड़ी होंगे कि वो एक मोस्टवांटेड को सीधे भारत न लाकर उस देश में फ्लाइट बदलकर वापस लाएंगे जहां भेद खुलने का सबसे ज्यादा खतरा है? हम इसे किसी फिल्मकार की क्रिएटिव फ्रीडम कह सकते हैं। लेकिन ऐसे में बेबी के जरिये भारतीय खुफिया तंत्र की असल झलक पेश करने का दावा हवाई जरूर हो जाता है।
बेबी इससे पहले आई एक्शन-थ्रिलर फिल्मों से कथानक के स्तर पर बहुत अलग नहीं है। यह आपको चौंकाती नहीं है, लेकिन अभिनय के मामले में सब किरदार असलियत के बेहद करीब जरूर हैं। अक्षय अपने किरदार को पूरी तरह से जी रहे हैं और यही बात केके मेनन, डैनी, अनुपम खेर, तापसी पन्नू, मुरली शर्मा तथा सुशांत सिंह के अलावा पाकिस्तानी कलाकारों रशीद नाज तथा मिकाल जुल्फिकार के लिए भी बेखटके कही जा सकती है। तथ्यों के मामले में नीरज बेशक बहुत जगह चूके हों, मगर अन्य थ्रिलर फिल्मों के मुकाबले बेबी में नीरज दृश्यों के असली लगने के मामले में जरूर इक्कीस हैं। फिल्म खत्म के बाद आप मौलाना रहमान तथा उनके अनुयायियों के नारे लगाने वाले दृश्य, जीनत महल में जावेद से सच उगलवाने और जेल में वकार से सच निकलवाने वाले दृश्यों को अपने साथ लेकर जाते हैं। कुछ अच्छे एक्शन सीक्वेंस और 159 मिनट के लिए देशप्रेम के अहसास में डूबे रहने के लिए बेबी को देखने जाया जा सकता है। 

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