ए लेजी ‘कुक्कड़ फैमिली’ स्किट
अगर आपने लंबे समय से जी भरके उबासियां नहीं ली हैं तो पेश है ‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’। इस फैमिली में क्रेजी कौन? क्रेजी हैं एक इस्टेट
के मालिक मिस्टर बेरी की वो चार औलादें जो सिर्फ उनके मरने के इंतजार में हैं,
ताकि बाप की जायदाद हाथ लग सके। बाप कोमा में है। वो पहले भी कोमा में जाकर बाहर आ
चुका है। इसलिए यह अंदाजा शुरू में लग जाता हैं कि परदे पर कुछ भी नाटकीयता (या
अतिनाटकीयता?) चलती रहे, मि. बेरी का कोमा टूटना ही है। नहीं,
आप बिल्कुल नहीं चौंकते। मतलब यह कि एक सस्पेंस (अगर इसे
सस्पेंस कहें, तो) जो इस बेहद ऊबाऊ फिल्म को जरा-सा रोचक बना
सकता था, वो भी शुरू में ही फुस्स। तो फिर फिल्म में रहा क्या? बस, एक पंक्ति में कही गई कहानी जिसका जिक्र मैंने अभी ऊपर किया।
माफ कीजिएगा डायरेक्टर साहब, पर अगर आप छोटे बेटे अभय के
समलैंगिक होने को भी सस्पेंस की श्रेणी में रखे हुए थे, तो ये गलतफहमी थी। यह किरदार
इस कदर स्थापित ही नहीं हो पाता कि इससे जुड़ी किसी भी बात से दर्शक को कोई फर्क
पड़े। फिल्म में सुरसा के मुंह जैसी खामी यह है कि इसका कोई भी किरदार स्थापित
नहीं हो पाता। हर किरदार कच्चा है, उसका खाका अधूरा है मानो एक रेखाचित्र बनाना
शुरू कर उसे बीच में छोड़ दिया गया हो। यह बात क्या कलाकार भी जानते थे? शायद हां! क्योंकि दो-तीन कलाकारों को छोड़ दें, तो कहीं नहीं लगा कि वे अपने पात्र
से जुड़ भी पाए हों, उसे जीना तो दूर की
बात। तभी तो न उनके अभिनय में धारणा का पुट आ पाया है, न वे असल पात्र लगते हैं। रंगमंच
की भाषा में कहें तो- ‘किरदार पेट से नहीं महज गले से निकलकर
आते हैं।’
फिल्म बेहद बोदे कथानक पर आधारित है, जिसके बारे में हम
आए दिन पढ़ते-सुनते हैं। ऐसी फिल्में दर्शक से तभी जुड़ पाती हैं जब आपसी रिश्तों
के ताने-बाने सूक्ष्म स्तर पर छुए जाएं। ऐसे कथानक देखे कम और महसूस ज्यादा किए
जातें हैं। लेकिन ‘क्रेजी
कुक्कड़ फैमिली’ में सबकुछ सतही है। यह फिल्म न होकर डेढ़
घंटे की स्किट लगती है। क्या फिल्म जल्दबाजी में बनी है, या फिर गहरा जाने की
कोशिश की जरूरत ही नहीं समझी गई। ...और क्योंकि कहानी में कुछ था नहीं, तो बेवजह के
साइड प्लॉट जोड़े गए हैं। कभी दूरबीन से नजर रखी जा रही है, कभी पैसा वापस लेने
विलेन आता है, तो कभी उसके गुंडे। कभी शादी के लिए चुनी गई लड़की आइटम गर्ल निकलती
है। इस सब बातों ने रायता ही फैलाया है, कुछ और नहीं किया।
बेहतर होता कि इसके बजाय एक परिवार को आधार बनाकर रची गई
इस फिल्म में रिश्तों की गहराई में जाया जाता। ऐसा होता तो फिर यह दिखाया जाता कि
जब दो भाई-बहन अकेले होते हैं तो वे अन्य के बारे में क्या बात करते हैं, या उनके
बीच की कसमसाहटें क्या हैं। अफसोस कि सारी कोशिश कुछ फ्लैशबैक दिखाकर या पुरानी
बातों का जिक्र करके पात्रों के व्यवहार का औचित्य साबित करने की है। शोध होता तो फिल्मकार
यह जरूर जानता कि पति या पत्नी होना एक फंक्शनल बात है, यह मर्द या औरत होने पर
निर्भर नहीं करता। सैंडी तथा अभय के समलैंगिक रिश्ते में सैंडी जोकि नरम स्वभाव है
उसे पति बताया गया है, जबकि अभय जो आक्रामक है उसे पत्नी!! मतलब, फिल्म बनाते वक्त सोच
को कष्ट दिया ही नहीं गया। आप प्रकाश झा बैनर के तले आने वाली फिल्मों से ऐसी
उम्मीद कतई नहीं करते।
फिल्म में नूरा फतेही (विदेशी लड़की एमी), निनाद कामत
(दामाद दिग्विजय) तथा बड़ी बहू की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री ही ऐसे कलाकार
हैं, जिन्होंने अपने-अपने किरदार की खाल में घुसने के लिए मेहनत की है। थोड़ी-बहुत
कोशिश कुशल पंजाबी की भी है। दोनों बाल कलाकारों का जरा भी इस्तेमाल नहीं हुआ है,
वे केवल परदे को भरने का काम करते हैं। कुल मिलाकर, यह फिल्म ऐसे कुक्कड़ के तौर
सामने आती है, जो अधपका रह गया है और जिसमें मजा देने का दम कतई नहीं है।
Comments