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Showing posts from 2013

भागते-भागते दूसरे हाफ़ में हांफ गई ‘जॉन डे’

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ज्ञानी लोग कहते हैं कि जब मौत सिर मंडरा रही हो तब इन्सान को ज़िंदगी के असल मायने समझ आते हैं, कितनी ही चीज़ें उसे बेमानी लगने लगती हैं और जीवन भर किए अपने ग़लत कामों पर उसे पछतावा महसूस होता है। इन्सान भ्रम के कितने भी चश्मे लगाए चलता रहे, मरते वक़्त उसके सामने सारी तस्वीर साफ़ हो जाती है। मौत से पहले के कुछ ऐसे ही पल उसे मुक्ति दिला जाते हैं।       अहिशोर सोलोमन की निर्देशक के रूप में पहली फ़िल्म ‘ जॉन डे ’ का कथानक आम कहानियों जैसा नहीं है कि जिसका कोई तार्किक अंत होता हो। यह फ़िल्म एक स्टोरीलाइन की घटनाओं का चित्रण भर है, लेकिन एक अनकहे सवाल के साथ ज़रूर ख़त्म होती है कि हम जिस सत्य को मरते समय समझकर मुक्ति का अहसास पा जाते हैं (जैसा कि फ़िल्म का एक किरदार ‘ ख़ान साहब ’ कहता भी है), उस मोक्ष की स्थिति को हम जीते-जी महसूस क्यों नहीं कर सकते ? अंतर केवल अपने अदंर के जानवर को ख़त्म करके एक इन्सान होकर सोचने का ही तो है।       फ़िल्म ‘ जॉन डे ’ इसी नाम के एक ऐसे आम इन्सान (नसीरुद्दीन शाह) के बदले की कहानी है जिसे पता चलता...

दोस्तों के साथ ही कर पाएंगे ‘ग्रैंड मस्ती’

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यह फ़िल्म देखने का मन बनाने से पहले कृपया ये तीन चेतावनियां ज़रूर पढ़ लें... यह परिवार के साथ देखे जाने वाली फ़िल्म कतई नहीं है। ऐसा न हो कि आप इस चेतावनी को नज़रअंदाज़ करते हुए परिवार को अपने साथ सिनेमा हॉल में ले जाएं और फिर पहले दो-चार मिनट में ही अपने अगल-बगल बैठे परिजनों से आंख मिलाने तक की हिम्मत न कर पाएं। यह डबल-मीनिंग संवादों, कामुक हाव-भाव और लगभग हर बात में सेक्सुअल अंडरटोन वाली फ़िल्म है। यहां तक कि इसका टाइटल गीत भी सेक्सुअल हिंट से लबरेज़ है। इसे देखते वक़्त बेहद खुले दिमाग़ की ज़रूरत है। उतना ही, जितना आप क़रीबी दोस्तों के साथ नॉन-वेज जोक्स सांझा करते वक़्त खुला रखते हैं। यानी, जो आप अकेले में सोचते हैं या जैसी बातें पक्के यारों के बीच बैठे कर लेते हैं, वह सब परदे पर नज़र आने वाला है। दिमाग़ को घर छोड़कर ही जाना पड़ेगा। वरना, शरीर का 1200 क्यूबिक सेंटीमीटर आकार तथा 1.5 किलो वजन वाला यह सबसे संवेदनशील हिस्सा लगातार 135 मिनट तक तकलीफ़ देता रहेगा।       निर्देशक इंद्र कुमार की यह फ़िल...

चले आइए मनोंरजन की ‘ज़ंजीर’ से बंधने के लिए

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आप एक अच्छी मनोरंजक फ़िल्म बनाते हैं तो फिर चालीस बरस पुरानी किसी हिट फ़िल्म के नाम का सहारा लेने की ज़रूरत कहां रह जाती है ! क्यों एक फ़िल्मकार चाहता है कि उसकी रचना के हर कोण हर दृश्य को पुरानी फ़िल्म से तुलना करते हुए देखा जाए। ...और वह भी तब, जब उस पुरानी फ़िल्म की कहानी के ज़्यादातर बिंदु तो नई फ़िल्म में लिए गए हों, मगर नाम को सार्थक करता तर्क फ़िल्म में हो ही न। अपूर्व लखिया की ‘ ज़ंजीर ’ एक ऐसी फ़िल्म हैं जिसमें दर्शक को आख़िर तक बांधकर रखने का माद्दा है। इसमें भरपूर मसाला है, एक्शन है, ड्रामा है, अच्छा अभिनय है...और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें रफ़्तार है।        हिंदी सिनेमा के रचनाशील लोगों के बीच एक शब्द चलता है- ‘ वन लाइनर ’ । यानी, फ़िल्म की कहानी का सार। इस मामले में देखें तो अपूर्व की ‘ ज़ंजीर ’ चार दशक पहले आई प्रकाश मेहरा की ‘ ज़ंजीर ’ का रीमेक कही जाएगी। अगर किरदारों के नाम की बात करें, तो भी यह फ़िल्म हमें चालीस साल पीछे ले जाती है। इसमें विजय खन्ना है, शेर ख़ान है, माला है, तेजा है, और साथ ही तेजा की मोना डार्लिंग भी है जिसका नाम इ...

‘सत्याग्रह’ में सत्य भरपूर मगर आग्रह कम

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क्रांति तब होती है जब अति हो जाए ; भीतर उबल रही भावनाएं जनाक्रोश की शक्ल में तब बाहर आती हैं जब कोई एक व्यक्ति पहला कदम बढ़ाए। यह ऐतिहासिक सत्य है कि नेतृत्व के बिना कारवां नहीं बनता...चाहे रास्ता सत्य का ही क्यों न हो, क़दम बढ़ाने वालों का मंज़िल पर अधिकार कितना भी क्यों न हो ! इसी सत्य को प्रकाश झा अपनी नई फ़िल्म ‘ सत्याग्रह ’ के ज़रिये परदे पर लेकर आए हैं। फ़िल्म के मूल में अण्णा हज़ारे का आंदोलन है, यह बात झा ने कभी छुपाकर नहीं रखी। यह ज़रूर है कि कथानक को उन्होंने सिनेमा की ज़रूरतों के हिसाब से बुना है और उसमें जहां-तहां व्यावसायिक मसाले भी डाले हैं। ऐसा नहीं होता तो फ़िल्म अण्णा के आंदोलन का महज चित्रण बनकर रह जाती। हालांकि, इस सबके बीच सच यही है कि अपने नेक इरादे के बावजूद ‘ सत्याग्रह ’ केवल उस सत्य को परदे पर पेश करने का माध्यम मात्र बनकर रह गई है जिससे हम सब पहले से परिचित हैं।       मध्य भारत के एक गांव में एक इंजीनियर की मौत की घटना से दिशा पकड़ती इस कहानी अण्णा के आंदोलन पर खत्म होती है। कहानी को असल में अलग-अलग समयकाल की दो घटनाओं को जोड़क...

शानदार रस हैं ‘मद्रास कैफ़े’ के मेन्यू में!

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‘ मद्रास कैफ़े ’ के रिलीज़ से पहले इसके निर्देशक शुजित सरकार बार-बार कह रहे थे कि वास्तविकता के जितना क़रीब उनकी यह फ़िल्म लगेगी उतना हिंदी सिनेमा की इससे पहले शायद ही कोई स्पाई-पॉलिटिकल थ्रिलर फ़िल्म लगी होगी। ...और अब जब फ़िल्म परदे पर सबके सामने है तो इसे देखते समय शुजित की ईमानदारी का कायल हुए बिना आप नहीं रह सकते। इसका हर दृश्य यूं लगता है मानो 20 साल पीछे के सब हालात आपकी आंखों के सामने घटित हो रहे हों।       श्रीलंका के गृहयुद्ध को आधार बनाकर रचे गए एक कथानक को सच के क़रीब ले जाकर परदे पर उतारना ही ‘ मद्रास कैफ़े ’ की ख़ूबी कही जाएगी। हालांकि, फ़िल्म कोई पहलू ऐसा नहीं है जिसे अच्छे से मांज कर पेश न किया गया हो। क्या कोई सोच सकता है कि आज जिस हिंदी सिनेमा में बिना आइटम सॉन्ग के फ़िल्म बनाने की कल्पना करने तक की हिम्मत कोई फिल्मकार नहीं जुटा पा रहा हो और फ़िल्मों में हर कदम पर संवाद इस कदर ठूंसे जा रहे हों कि दर्शक को परदे पर चलती तस्वीरें समझने का मौका तक न मिले, वहां कोई ऐसी फ़िल्म भी देखने को मिल सकती है जिसमें केवल एक गीत हो और वह भी कहानी पूर...

ढीली रही ‘वन्स अपॉन ए टाइम...’ की दोबारा पेशकश

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जब दर्शक एक दमदार फ़िल्म देख चुका हो, तो उसकी अगली कड़ी से उसकी अपेक्षाएं बेहद बढ़ी हुई रहती हैं। इस वजह से फ़िल्मकार पर ज़िम्मेदारी भी यक़ीनन ज़्यादा हो जाती है। लेकिन इस ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते वक़्त हर कोई उन अपेक्षाओं को पूरा कर पाए, यह हमेशा नहीं हो पाता। ‘ वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई - दोबारा ’ के साथ ही ऐसा ही कुछ हुआ है। ‘ वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई ’ के मुक़ाबले उसका यह सीक्वल न केवल ढीला है बल्कि जगह-जगह पर इसके कितने ही सिरे खुले छोड़ दिए गए हैं।       फ़िल्म का कथानक अस्सी के दशक का है और अंडरवर्ल्ड डॉन शोएब (या कि शोहेब ? कह नहीं सकते क्योंकि कोई उसे शोएब कह रहा है तो कोई शोहेब ! क्या निर्देशक एवं संवाद-लेखक डबिंग के समय मौजूद नहीं थे ? ) के किरदार में अक्षय कुमार की असरदार मौजूदगी ही इसकी हाईलाइट कही जा सकी है। एक डॉन की क्रूरता व कमीनेपन को अक्षय अपने अंदाज़ में बख़ूबी लेकर आए हैं, मगर उन्हें दिए गए दार्शनिकता-भरे संवाद जहां एक तरफ शोएब के किरदार को विशिष्ट बनाते हैं वहीं उसकी धार को कुंद भी कर गए हैं। कुछ अलग पेश करने के चक्कर में इतना बह जान...

शाहरुख-दीपिका के इंजन ने खींची ‘चेन्नई एक्सप्रेस’

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ख़ूबसूरत लोकेशन्स, शानदार फ़िल्मांकन, शाहरुख की ताज़गी-भरी मौजूदगी, दीपिका का दमदार अभिनय, बीच-बीच में हल्के-फुल्के लम्हे, चुटीले संवाद, लेकिन एक कमज़ोर पटकथा... ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ का सार यही है। मुंबई से शुरू हुई ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ के रास्ते में फन स्टेशन जगह-जगह हैं, तो एक्शन स्टेशन भी कई बार आते हैं। बीच-बीच में गाड़ी इमोशन स्टेशन पर भी रुकती है, जो राहत ही लेकर आती है। ...और जब कहीं लगने लगता है कि ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ अब रुकी कि तब रुकी, वहां कभी शाहरुख कभी दीपिका तो कभी दोनों मिलकर उसे खींच ले जाते हैं।       फ़िल्म की शुरूआत एक संपन्न परिवार के व्याख्यात्मक परिचय से है जिसका सूत्रधार फ़िल्म का मुख्य किरदार ख़ुद है। शुरूआती कुछ मिनटों में ही जिस गति से एक घटनाक्रम निपटता है, वह दर्शक को बांधने के लिए काफी है। यानी, ‘ चेन्नई एक्सप्रेस ’ में सवार होने के लिए आपको ज़्यादा देर नहीं करनी पड़ती। रेलगाड़ी में राहुल का किरदार में शाहरुख और मीनाअम्मा के भूमिका में दीपिका के बीच गीतों के ज़रिये संवाद का आयडिया गुदगुदा जाता है, पर जब यही आयडिया मध्यांतर ...

पल-पल गुदगुदा जाती है ‘चोर चोर सुपर चोर’

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अगर हास्य केवल संवादों में होता तो चार्ली चैपलिन को कोई नहीं जान पाता। असल हास्य परिस्थितियों में छुपा होता है और संवाद उस हास्य के सोने पर महज़ सुहागा बुरकने का काम करते हैं। यह बात शायद युवा निर्देशक के. राजेश अच्छे से समझते हैं। अपनी फ़िल्म ‘ चोर चोर सुपर चोर ’ में उन्होंने इसी बात को हथियार बनाया है। अपनी इसी ख़ासियत की वजह से ‘ चोर चोर सुपर चोर ’ ऐसी हल्की-फुल्की कॉमेडी के रूप में परदे पर चलती जाती है जिसके ज़्यादातर कलाकार नए हैं और हालात हमें परिचित-से लगते हैं।       कोई किसी भरोसे से खेलकर उसका फ़ायदा उठा जाए तो उंगली टेढ़ी करना बनता है, बॉस ! इस फ़िल्म का सेंट्रल आयडिया यही है। यानी, धोखेबाज़ों के लिए चोर से सुपर चोर हो जाओ। जेबकतरे के रूप में अपनी पहचान से छुटकारा पाकर मेहनत से रोज़ी-रोटी कमाने निकले सतबीर को जल्द समझ आ जाता है कि शराफ़त का रास्ता इतना भी आसान नहीं है और यह दुनिया प्यार को हथियार बनाकर चूना लगाने के लिए तैयार बैठी है। ऐसे में ख़ुद को बचाने के लिए मन-मसोसकर उसे उसी रास्ते पर चलना होता है जिसे वह छोड़ना चाह रहा होता है। ‘ लोहे को...

अटकते-अटकते फ़िल्म आख़िर हो गई ‘बीए पास’

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इधर कुछ समय से कम बजट में बनी ऐसी फ़िल्में आ रही हैं जो क़ाबिल कलाकारों तथा अच्छे कॉन्सेप्ट का ऐसा शानदार टू-इन-वन पैकेज पेश कर रही हैं कि कुछेक अंतर्निहित ख़ामियों एवं कहीं-कहीं अतिरंजना के बावजूद वे दर्शक को बांधे रखती हैं। ऐसी ही कुछ फ़िल्मों में एक ‘ बीए पास ’ भी है। निर्देशक अजय बहल की यह पहली फ़िल्म है जो हालात के मकड़जाल में उलझकर एक युवा लड़के के जिगोलो यानी पुरुष-वेश्या बनते जाने की कहानी है। यह आख़िरकार दर्दनाक मोड़ पर आकर ख़त्म होती है... लेकिन हर कदम पर इरोटिक दृश्यों की ख़ुराक परोसने के बाद। फ़िल्म में नैतिकता का सवाल नहीं उठाया गया है, मगर एक सामान्य सवाल अपने जवाब के साथ ज़रूर मौजूद है कि अनैतिक रास्ते पर चलकर ज़िंदगी की गाड़ी सुगमता से चल तो पड़ेगी मगर इसमें सुख किसी मोड़ पर नहीं है।       ‘ बीए पास ’ एक वयस्क फ़िल्म है जो अच्छे कॉन्सेप्ट पर बनी है, मगर ज़्यादातर समय यह फ़िल्म इरोटिक दृश्यों की पेशकश में इतना बह गई है कि कथानक के मूल तत्व से भटकने लगती है। इसका मज़बूत कॉन्सेप्ट ढीला पड़ता जाता है और एकरसता हावी होती जाती है। एक मोड़ पर आकर...

यातना के सिवा कुछ और नहीं है ‘इसक’

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पहले कुछ सवाल.... ! क्या बनारसी होने का मतलब केवल ख़ून-ख़राबा करना और बात-बात पर बंदूक निकाल लेना है ? क्या बनारस और आस-पास के इलाक़ों में नक्सली हथियार लहराते हुए खुले घूमते हैं और ‘ लाल सलाम, लाल सलाम ’ का उद्घोष करते नौकाओं में बैठ कहीं भी बेरोक-टोक आ–जा सकते हैं ? क्या हमारी कानून-व्यवस्था इतनी कुंद पड़ गई है कि भारत का एक तहज़ीब वाला शहर यूं लगे मानो हम सोमालिया के जलदस्युओं के अधिकार-क्षेत्र में हों ? क्या नक्सल सरदार इतने मूढ़ होते हैं कि रेत के खनन का अधिकार देने के एक इंस्पेक्टर जैसे नगण्य अधिकारी के वायदे पर एक भरी-पूरी ख़ूनी जंग छेड़ देते हैं ? क्या बनारस में स्पाइरमैन पाया जाता है जो कहीं भी चढ़-उतर सकता है, छलांग लगाकर एक घर से दूसरे घर में पहुंच जाता है ? क्या यह स्पाइडरमैन जब दुश्मन परिवार की छत पर पहुंचता है तो एच.जी. वेल्स का ‘ इनविज़िबल मैन ’ हो जाता है ? क्या शिव की नगरी काशी में कामदेव एक इन्सान के रूप में अवतार ले चुके हैं जो नशे की हालत में एक चुंबन का तीर चलाकर ही नायिका को अपना बना लेते हैं ? अगर आप इन सवालों के जवाब हर हाल में ‘ हां ’ में चाहते हैं तो...

चढ़ पाया केवल अभिनय का ‘नशा’

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फ़िल्म के पहले दो-एक दृश्यों के बाद जैसे ही नायिका के नहाने का दृश्य आता है और जिस ढंग से इसे पेश गया है, उसे देखकर यही सवाल उठता है कि आने वाले दो घंटे तक हम कहीं कोई इरोटिका तो नहीं देखने जा रहे ! लेकिन नहीं...अपनी कितनी ही ख़ामियों के बावजूद इस फ़िल्म का कथानक अपने साथ चित्तवृत्तियों का पिटारा लेकर आता है। इस कारण यह फ़िल्म केवल एक लड़की का अपने से कम उम्र के लड़के से रोमांस का चित्रण भर नहीं रह जाती। ‘ नशा ’ की असली मदहोशी इसके कलाकारों का दमदार अभिनय है, जो लंबे समय तक आपके साथ बना रहता है। अब चाहे वह साहिल की भूमिका में शिवम हों, या फिर अपने-अपने पात्रों को बेहतरीन ढंग से जी रहे शीतल सिंह, नेहा पवार, चिराग लोबो, विशाल भोसले और मोहित चौहान जैसे नए-पुराने कलाकार हों। यहां तक कि कई जगह पूनम पांडेय भी हैरान कर जाती हैं। जिस तरह की पूनम की छवि रही है और मॉडल से अभिनेत्री बनी लड़कियां अपनी पहली ही फ़िल्म में जो करती रही हैं, उसे याद रखते हुए पूनम से वह अपेक्षित नहीं था जो उन्होंने परदे पर निभाया है।       फ़िल्म ‘ जिस्म ’ से चर्चित हुए अमित सक्सेना के हाथ...

हल्की-फुल्की कॉमेडी का ढोल ‘बजाते रहोsss’

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मेहनत और ईमानदारी से गुज़र-बसर कर रहे एक आम मिडल-क्लास परिवार को अगर किसी दूसरे की बेईमानी और बदनीयती का दंश झेलना पड़े और फिर इसकी कीमत उसे सम्मान एवं जान देकर चुकानी पड़े, तो कोई भी इन्सान वही करेगा जो ‘ बजाते रहो ’ में बावेजा परिवार के लोग करते हैं। दिल्ली की एक मध्यमवर्गीय बस्ती की पृष्ठभूमि पर रचे गए इस कथानक में प्यार है, दोस्ती है, झगड़ा है, ख़ुद्दारी है, लालच है, बदला है....और सबसे ख़ास बात इसमें ईमानदारी से चित्रित की गई इन्सानी कमज़ोरियां हैं। इन सब मानवीय विशिष्टताओं के ताने-बाने के नीचे हास्य की धीमी धारा लगातार बहती जाती है। ऐसा हास्य जो आपको ठठाकर नहीं हंसाता, पर मुस्कराने को मजबूर ज़रूर करता है। ‘ जैसे को तैसा ’ की सोच के तहत बदला लिए जाने की युक्तियां बेशक कई जगह अव्यावहारिक लगें, लेकिन उनके पीछे का कच्चापन ही दर्शक को गुदगुदाहट दे जाता है। उसे परदे पर चलता घटनाक्रम परिचित-सा लगता है और वह किसी-न-किसी किरदार में ख़ुद को तलाश ही लेता है।       कुल 107 मिनट की ‘ बजाते रहो ’ इस मामले में विशेष है कि इसमें किसी भी पात्र को सुपर हीरो नहीं दिखा...